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Thursday 2nd of May 2024
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नास्तिकता और भौतिकता



नास्तिकता और भौतिकता का इतिहास बहुत प्राचीन है और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार प्राचीन काल से ही ईश्वर पर विश्वाश रखने वाले लोग थे उसी प्रकार उसका इन्कार करने वाले भी लोग मौजूद थे किंतु उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी परंतु १८ वीं शताब्दी से युरोप में धर्मविरोध का चलन आरंभ हुआ और धीरे धीरे पूरे विश्व में फैलता चला गया। यद्यपि धर्म विरोध का चलन गिरजाघरों की सत्ता और ईसाई धर्म गुरुओं की निरंकुशता तथा ईसाई धर्म के विरोध में आरंभ हुआ था किंतु समय के साथ ही साथ इस लहर ने अन्य धर्मों के अनुयाइयों को भी अपनी लपेट में ले लिया और धर्म से दूरी की भावना, अन्य देशों में पश्चिम केऔद्योगिक व वैज्ञानिक विकास के साथ ही पहुंच गयी और हालिया शताब्दियों में मार्क्सवादी व आर्थिक विचारधाराओं के साथ मिल कर धर्म विरोध की भावना ने मानव समाज को त्रासदी के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

धर्म विरोधी भावना के फैलने के बहुत से कारण हैं किंतु यहां पर हम समस्त कारणों को तीन भागों में बांट कर उन पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे।

धर्मविरोधी भावना के फैलने का प्रथम कारण मानसिक है अर्थात वह भानवाएं जो धर्म से दूरी और नास्तिकता के कारक के रूप में किसी भी मनुष्य में उत्पन्न हो सकती हैं जैसे भोग विलास व ऐश्वर्य की अभिलाषा और प्रतिबद्धता से दूरी की चाहत मनुष्य को धर्म का विरोध करने पर उकसा सकती है। वास्तव में लोगों को प्रायः ऐसे सुख की खोज होती है जिसे  इंद्रियों द्वारा भोगा जा सके और धर्म व ईश्वर के आदेशों के पालन का सुख ऐसा है कि कम से कम इस संसार में उसे इंद्नियों द्वारा समझना हर एक के बस की बात नहीं है।

दूसरी ओर निरकुंशता और दायित्वहीनता से प्रेम भी मनुष्य को धर्म की प्रतिबद्धताओं से दूर रख सकता है क्योंकि ईश्वरीय धर्म को मानने से कुछ वर्जनाएं और प्रतिबंध लागू हो जाते हैं जिनका पालन इस बात का कारण बनता है कि मनुष्य को बहुत से अवसरों पर अपना मनचाहा काम करने से रोका जाता है और इस प्रकार से उसकी स्वतंत्रता या दूसरे शब्दों में निरंकुशता समाप्त हो जाती है जो असीमित स्वतंत्रता व निरकुंशता की चाहत रखने वालों को स्वीकार नहीं होती, इसी लिए वह इसके कारक अर्थात धर्म के विरोध पर उतर आते हैं। धर्म के विरोध के बहुत से मानसिक कारकों में यह एक मुख्य और प्रभावी कारक है और बहुत से लोग जाने अनजाने में इसी भावना के अंतर्गत ईश्वर और धर्म का इन्कार करते हैं।

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