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Saturday 27th of April 2024
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पर्यावरण पर मानव जीवन के पड़ने वाले प्रभाव

इस्लाम में पर्यावरण से जुड़ी नैतिकता का ध्रुव ईश्वर है क्योंकि यह एकेश्वरवादी विचारधारा से प्रेरित है। इस विचारधारा में पूरी दुनिया का ध्रुव ईश्वर है, उसी ने पूरे ब्रहमान्ड को बनाया और वही इसका संरक्षक है। इस आधार पर पर्यावरण की रक्षा उन चीज़ों की रक्षा करने जैसी है जिन्हें ईश्वर ने बनाया है।
पर्यावरण पर मानव जीवन के पड़ने वाले प्रभाव

इस्लाम में पर्यावरण से जुड़ी नैतिकता का ध्रुव ईश्वर है क्योंकि यह एकेश्वरवादी विचारधारा से प्रेरित है। इस विचारधारा में पूरी दुनिया का ध्रुव ईश्वर है, उसी ने पूरे ब्रहमान्ड को बनाया और वही इसका संरक्षक है। इस आधार पर पर्यावरण की रक्षा उन चीज़ों की रक्षा करने जैसी है जिन्हें ईश्वर ने बनाया है।
 
 
 
 
 
एकेश्वरवादी विचारधारा में सृष्टि में मौजूद हर चीज़ ईश्वर के अधीन है। इन चीज़ों की समस्त गतिविधियों का लक्ष्य ईश्वर है। इस आधार पर पर्यावरण से जुड़ी नैतिकता प्रकृति से लेकर जानवरों तक पर्यावरण के तत्वों के मुक़ाबले में इंसान के व्यवहार, उसके दृष्टिकोण और ज़िम्मेदारियों के निर्धारण पर आधारित है। एकेश्वरवादी विचाराधारा में जो आदर्श जीवन शैली का आधार है, इंसान सबसे पहले ईश्वर को पूरी सृष्टि का बनाने वाला और स्वामी समझता है और दूसरे नंबर पर ख़ुद को ईश्वर और दूसरी चीज़ों के मुक़ाबले में ज़िम्मेदार समझता है।
 
 
 
 
 
जैसा कि यह बात कह चुके हैं कि दुनिया में घटने वाली घटनाएं कुछ हद तक इंसान के कर्म पर आधारित होती हैं। इसका मतलब यह है कि अगर इंसान ईश्वर का आज्ञापालन करे और उसकी बंदगी के मार्ग को चुने तो ईश्वर की कृपा के द्वार उसके लिए खुल जाएंगे। किंतु इसके विपरीत यदि अगर बंदगी के मार्ग को छोड़ कर गुमराही की वादी में भटकने लगे तथा भ्रष्ट विचारों से अपने मन को गंदा कर ले तो मानव समाज में भ्रष्टाचार फैल जाएगा और इसका असर ख़ुद उस पर होगा यहां तक कि पर्यावरण भी इससे सुरक्षित नहीं बचेगा।
 
 
 
 
 
इस संदर्भ में महान इस्लामी विद्वान आयतुल्लाह जवादी आमुली कहते हैं, “न सिर्फ़ इंसान के अच्छे और बुरे कर्म बल्कि उसकी नियत का भी दुनिया में घटने वाली घटनाओं पर असर पड़ता है। क्योंकि ज़ंजीर के समान सृष्टि की हर चीज़ एक दूसरे से जुड़ी हुयी है और इंसान भी उसी ज़न्जीर की एक कड़ी है। इस प्रकार वह अन्य कड़ियों से ख़ुद को अलग नहीं कर सकता। (क्योंकि वह बहुत से कॉज़ का इफ़ेक्ट और बहुत से इफ़ेक्ट का कॉज़ है)। यहां तक कि वह समुद्र, मरुस्थल, ज़मीन और हवा में मौजूद चीज़ों का असर क़ुबूल करता है और पारस्परिक रूप से उन पर असर भी डालता है। इस आधार पर इंसान के कर्म दुनिया की अच्छी और बुरी घटना पर असर डालते हैं और उनसे प्रभावित होते हैं। यह असर लेने और असर डालने की पारस्परिक प्रक्रिया का कार्यक्षेत्र सिर्फ़ इंसान के बदन तक सीमित नहीं है बल्कि उसके विचार, नैतिकता, व्यवहार, बातचीत और चरित्र तक फैला हुआ है।”
 
 
 
 
 
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में प्रकृति और इंसान के कर्म के बीच सीधा संबंध बताया गया है। इस बारे में क़ुरआन की आयतें कई वर्ग में बटी हुयी हैं। कुछ आयते इंसान और दुनिया की घटनाओं के बीच पारस्परिक संबंध को बताती हैं। कुछ आयतें इंसान के भले कर्म और दुनिया में घटने वाली सार्थक घटनाओं के बीच संबंध को बताती हैं। इसी प्रकार कुछ आयतें इंसान के बुरे कर्म और दुनिया में घटने वाली बुरी घटनाओं के बीच संबंध को बताती हैं। मिसाल के तौर पर जिन्न नामक सूरे की आयत नंबर सोलह में ईश्वर कह रहा है, “अगर जिन्न और इंसान ईश्वर पर आस्था में दृढ़ रहे तो हम उन्हें बहुत ज़्यादा पानी से नवाज़ें।” इस आयत के आधार पर सच्चाई के मार्ग पर दृढ़ता बहुत ज़्यादा पानी से संपन्नता का कारण है कि यही पानी खेतों और जंगलों की सिचाई तथा पशुओं और इंसानों की प्यास बुझाता है। पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या में आया है कि इस आयत में पानी से सिर्फ़ वर्षा का पानी नहीं है बल्कि सोतों, कुओं और नहरों का भरना भी है। तो इस प्रकार ईश्वर भले कर्म से किसी राष्ट्र को अनुकंपाएं देता है और जैसा कि बहुत से पाप मुमकिन है ईश्वर के आदेश से पानी के कम होने का कारण बनें। इस पवित्र आयत के मुताबिक़, ईश्वर पर आस्था से न सिर्फ़ आध्यात्मिक विभूतियां मिलती हैं बल्कि भौतिक रोज़ी भी बढ़ती है।
 
 
 
 
 
अराफ़ सूरे की आयत नंबर 96 के एक भाग में ईश्वर कह रहा है, “ अगर शहर और बस्तियों में रहने वाले लोग आस्था रखें और डरें तो ज़मीन और आसमान की विभूतियों के द्वार उनके लिए खोल देंगें।” इस आयत के मुताबिक़, ईश्वर पर आस्था और उससे डरने से शहरों और गावों में ईश्वरीय विभूतियां के द्वार उनके लिए खुल जाएंगे। इस आयत से इंसान के कर्म और दुनिया की घटनाओं के बीच संबंध बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। ज़मीन और आसमान की बरकतें कई प्रकार की हैं। आसमानी बरकतें जैसे बारिश, बर्फ़बारी, सूरज की किरण और ज़मीन की बरकत में उस पर चश्मों और नहरों का बहना तथा वनस्पतियों और फलों का निकलना कि इन सबके पीछे इंसान के कर्म की भूमिका है।
 
 
 
 
 
रूम सूरे की आयत नंबर 41 में ईश्वर पर्यावरण पर इंसान के कर्म के प्रभाव का दूसरे आयाम से उल्लेख कर रहा है। इस आयत में ईश्वर कह रहा है, “जल और थल में इंसान के कर्म के कारण तबाही स्पष्ट हो गयी है। ईश्वर उनके कुछ कर्म का मज़ा उन्हें चखाना चाहता है। शायद वे  सत्य की ओर पलट आएं।” समुद्र में भ्रष्टाचार या तबाही मुमकिन है समुद्री अनुकंपाओं में कमी या अशांति और समुद्र में होने वाली जंगों के कारण हुआ हो। लेकिन जिन आयतों में ईश्वर की ओर से दंड का उल्लेख है उनमें सबसे पहले इंसान के कर्म से नेमतों के छिनने का उल्लेख है। उसके बाद अनेकेश्वरवाद के नतीजे में इंसान की बर्बादी का उल्लेख है। क्योंकि ईश्वर ने सबसे पहले जो चीज़ दी है वह अस्तित्व जैसी विभ्रति है और उसके बाद रोज़ी दी जाती है। वापस लेते वक़्त भी इसी क्रम को मद्देनज़र रखा गया है यानी पहले नेमतें छिनती हैं और फिर तबाही आती है।                     
 
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है, “समुद्र में मौजूद चीज़ों के जीवन का साधन बारिश है। जब बारिश नहीं होती तो जल में भी तबाही आती है। यह ऐसी हालत में है जब बहुत ज़्यादा गुनाह हो रहे हैं।” अलबत्ता जो कुछ इस कथन में कहा गया है वह भ्रष्टाचार का स्पष्ट उदाहरण है और जो कुछ बारिश तथा समुद्री जानवरों की ज़िन्दगी के बारे में कहा गया है, वह अनुभव से साबित हो गया है कि जब भी बारिश कम होगी समुद्र में मछलियां कम होंगी। बल्कि बहुत से तटवर्ती इलाक़ों में रहने वालों को यह कहते सुना गया हे कि समुद्र में बारिश का फ़ायदा, मरुस्थल में बारिश के फ़ायदे से ज़्यादा है।
 
 
 
 
 
इस आयत के अनुसार दुनिया में अप्रिय घटनाओं और इंसान के बुरे कर्मों के बीच आपस में संबंध है। इसी प्रकार अगर इंसान ईश्वर के आदेश का पालन करे, उसकी बंदगी के मार्ग पर चले तो ईश्वरीय अनुकंपाओं के द्वार उसके लिए खुल जाएंगे और अगर बंदगी का मार्ग छोड़ दे और गुमराही का मार्ग अपना ले तो यही अनुकंपाएं छिन जाएंगी।
 
 
 
इस्लाम में सभी भले कर्म को स्थायी बताया गया है लेकिन कुछ कर्मों को अमर कहा गया है। मिसाल के तौर पर विज्ञान की किताब का संकलन और पवित्र क़ुरआन को लिखना। बाक़ी रहने वाले अच्छे कर्म में पर्यावरण को बचाने वाले कर्म जैसे पेड़ लगाना, कुएं खोदना, बांध और पुल बनाना। यह सब इंसान की ज़िन्दगी के लिए उचित अवसर उपलब्ध  करते हैं। इस्लामी शिक्षाओं में आया है कि अगर कोई व्यक्ति एक पेड़ लगाए या ऐसा काम करे जिससे आम लोगों को फ़ायदा पहुंचे तो जब तक वह कर्म बाक़ी है, उस व्यक्ति के लिए पुन्य लिखा जाता रहेगा। कितना अच्छा हो अगर इंसान पेड़ लगाने और उसकी रक्षा में किसी प्रकार की लापरवाही न करे क्योंकि पेड़ हवाओं को शुद्ध करते हैं। पेड़ लगाने की इतनी अहमियत है कि इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का एक कथन है। आप फ़रमाते हैं कि अगर तुम्हारे हाथ में एक पौधा हो और प्रलय के आने में केनल इतना वक़्त बाक़ी हो कि तुम उसे लगा सकते हो तो उसे लगा दो।
 
 
 
 
 
आदर्श जीवन शैली में पर्यावरण पर ध्यान देने के संबंध में एक अहम बिन्दु पानी से संबंधित है। वह यह कि पानी का इस्तेमाल करते वक़्त उसे बर्बाद न किया जाए। इस्लामी शिक्षाओं में पानी की इतनी अहमियत है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम पानी पीते वक़्त एक दुआ पढ़ते थे। जिसका अर्थ है, “प्रशंसा उस ख़ुदा के लिए जिसने पानी को हमारे पापों के कारण खारा नहीं क़रार दिया बल्कि अपनी नेमतों से उसे मीठा क़रार दिया।” हर इंसान को चाहिए कि पानी को गंदा और दूषित करने से बचे क्योंकि पानी पर इंसान सहित हर प्राणी की ज़िन्दगी टिकी हुयी है।
 
 
 
 
 
कुल मिलाकर यह कहना चाहिए कि इंसान जिस तरह आदर्श जीवन शैली में ईश्वर के सामने जवाबदेह है उसी तरह उसपर पर्यावरण के संबंध में भी ज़िम्मेदारी है। इस ज़िम्मेदारी का तक़ाज़ा यह है कि पर्यावरण के संबंध में कोई फ़ैसला लेने से पहले उस फ़ैसले अंजाम के बारे में सोचे।


source : irib
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