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ईदे क़ुरबान

ईदे क़ुरबान

दसवीं ज़िलहिज्जा का सूर्योदय हो चुका है और ढेर सारी ख़ुशियों के साथ भव्य एवं महान ईद आ पहुंची है। हृदय को प्रफुल्ल और आनंद प्राप्त हो गया है। सांसे शांत और निगाहें प्रसन्न हैं। बहुत बड़ी संख्या में लोग परिवर्तित का आभार करते हुए ईश्वरीय इच्छा के समक्ष नतमस्त हैं। लोगों ने प्रेम और नत्मस्तक होने का प्रदर्शन किया। अल्लाहो अकबर की आवाज़ों और ईश्वरीय प्रशंसा से मेना का वातावरण महक रहा है।आज ईदे क़ुरबान अर्थात बक़रीद है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम का कहना है कि अपनी ईदों को तकबीरों अर्थात अल्लाहो अकबर की आवाज़ों से सुसज्तित करो। वे स्वयं भी ईद और बक़रीद के दिन अपने घर से बाहर आते और ऊंची आवाज़ में "लाएलाहा इल्लल्लाह" व "अल्लाहो अकबर" कहा करते थे। इस प्रकार वे महान ईश्वर की याद से लोगों के हृदयों को प्रफुलिल्ता प्रदान करते थे। ईदे क़ुरबान या बक़रीद हज के संस्कारों का चरम बिंदु है और लोगों के ईश्वर से निकट होने का मौसम है। बक़रीद के दिन जिन हाजियों ने अपने हृदयों को सृष्टि के रचयिता के हवाले कर दिया है वे अद्वितीय उत्साह से हज संस्कार को अंजाम देते हैं। वे लोग क़ुरबानी के लिए एक स्वस्थ्य पशु चुनते हैं और फिर उसकी क़ुरबानी करते हैं। क़ुरबानी के पश्चात ईदे क़ुरबान की नमाज़ पढ़तें हैं। ईदे क़ुरबान या बक़रीद, मुसलमानों की बड़ी ईदों में से है। यह मुसलमानों की आधिकारिक छुटटी का दिन है इसमें पूरे इस्लामी जगत में बड़े ही हर्षोल्लास से उत्सव मनाए जाते हैं। आज के दिन सुबह से ही लोग आशाओं से भरे हृदय तथा परोपकार के लिए तत्पर हाथों से ईदगाहों की ओर तेज़ी से बढ़ते हैं और अपने हृदय तथा अपनी आत्मा को दुआ और प्रार्थना के निर्मल जल से स्वच्छ करते हैं। नमाज़ के पश्चात बहुत से लोग ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क़ुरबानी करते हैं और वंचितों की दावत करते हैं। ऐसे लोग अपने हृदय की गहराइयों से कहते हैं कि वास्तव में मेरी नमाज़ और उपासना, मेरा जीवन और मृत्यु सबकुछ उस ईश्वर के लिए है जो बृहमाण्ड का स्वामी है। मित्रों, ईद के इस पवित्र के अवसर पर हम आप सभी की सेवा में हार्दिक बधाईयां प्रस्तुत करते हैं। ईश्वर की निकटता की प्राप्ति के लिए बड़ी-बड़ी परीक्षाएं देनी होती हैं। ईश्वर के निकट व्यक्ति का स्थान जितना ऊंचा होगा उसकी परीक्षा भी उसी के अनुसार उतनी ही कठिन होगी। हज़रत इब्राहीम द्वारा अपने पुत्र हज़रत इस्माईल की क़ुरबानी की परीक्षा की बात शायद ही किसी की समझ में आए किंतु वास्तविकता यह है कि हज़रत इब्राहीम अपनी परीक्षा में सफल हुए और ईश्वर ने उनपर सलाम भेजा और उन्हें अपनी कृपा का पात्र बनाया। हज़रत इब्राहीम, महान ईश्वरीय दूतों में से एक हैं। उन्होंने ही एकेश्वरवादी धर्म और एकेश्वरवाद का प्रसार किया। उन्होंने ईश्वर के घर का पुनर्निर्माण किया और ईश्वर के घर के दर्शन और हज के संस्कारों को स्पष्ट किया। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में एकेश्वरवाद का पाया जाना हज़रत इब्राहीम सरीखे ईश्वरीय पैग़म्बरों के अथक प्रयासों का ही परिणाम है। ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में हज़रत इब्राहीम की सराहना की है। सूरए नेसा की आयत संख्या १२५ में हम पढ़ते हैं- "उस व्यक्ति से अच्छा धर्म किसका हो सकता है जिसने स्वयं को अल्लाह के आगे समर्पित कर दिया और वह भले कर्म करने वाला भी हो और वह इब्राहीम के पवित्र तथा विशुद्ध पंथ का अनुयाई हो, अल्लाह ने इब्राहीम को अपना घनिष्ठ मित्र चुना था।" क़ुरआन की बातों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हज़रत इब्राहीम ने हज़रत इस्माईल की क़ुरबानी की घटना को स्वपन में देखा था। क्योंकि उन्होंने इसे स्वपन में देखा था इसलिए से वे थोड़ा शंकित थे किंतु इस स्वपन को कई बार देखने के पश्चात वे समझ गए कि यह "वहि" अर्थात ईश्वर का आदेश है। अंततः उन्होंने अपने स्वप्न को अपने पुत्र इस्माईल से बताया और इस संबन्ध में उनके विचार जानने चाहे। हज़रत इस्माईल ने अपने पिता को धैर्य बंधाया और उनसे कहा कि इस ईश्वरीय आदेश का पालन करने में वे दृढ़ रहेंगे। हज़रत इब्राहीम और उनके पुत्र हज़रत इस्माईल की द्विपक्षीय वार्ता परिज्ञान, अंतरदृष्टि, प्रेम और सहमति से परिपूर्ण है। इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी पूर्ण निष्ठा के साथ इन कार्यों को करने की तैयारी की। इसी बीच शैतान ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को बहकाने के यथासंभव प्रयास किये ताकि वे इस्माईल की क़ुरबानी से रूक जाएं किंतु हर बार हज़रत इब्राहीम ने शैतान को पत्थर मारकर अपने से दूर किया। इस प्रकार हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल ने ईश्वर के समक्ष श्रद्धा, भक्ति और समर्पण को उच्च कोटि में प्रस्तुत किया। हज के दौरान रमियेजमरात में हजयात्री इस एतिहासिक घटना की पुनर्रावृत्ति करते हैं और हज़रत इब्राहीम के पदचिन्हों पर चलते हुए शैतान के प्रतीक को पत्थर की कंकरियां मारते हैं। पवित्र क़ुरआन के सूरए साफ़्फ़ात की आयत संख्या १०२ से १०९ में इस विषय की ओर संकेत करते हुए इब्राहीम और इस्माईल की श्रृद्धा और समर्पण को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। "और जब वह (लड़का) उसके साथ दौड़-धूप करने की अवस्था को पहुंचा तो (एक दिन इब्राहीम ने) कहा, हे मेरे बेटे मैंने स्वप्न में देखा है कि मैं तुम्हें ज़िब्ह कर रहा हूं। अब तुम बताओ कि तुम्हारा क्या विचार है? उसने कहा, हे मेरे पिता, जो कुछ आपको आदेश दिया गया है उसे पूरा कीजिए। ईश्वर ने चाहा तो आप मुझे संयम रखने वालों में से पाएंगे। जब दोनों ने स्वयं को समर्पित किया और इब्राहीम ने उनका ललाट धरती पर रखा तो हमने पुकार कर कहा हे इब्राहीम, तुमने स्वप्न को सच्चा कर दिया। (और अपने दायित्वों का निर्वाह किया) निःसन्देह, इस प्रकार के शिष्टाचारियों को हम एसा ही पारितोषिक देते हैं। निश्चय ही यह वही खुली हुई परीक्षा है और हमने इसका बदला एक महान क़ुरबानी निर्धारित किया और उसका नाम अन्तिम काल तक बाक़ी रखा है। सलाम हो इब्राहीम पर।इस प्रकार हज़रत इब्राहीम और उनके पुत्र हज़रत इस्माईल ने ईश्वर के समक्ष समर्पण एवं श्रंद्वा का बड़े ही अच्छे ढंग से चित्रण किया है। इस कहानी में ध्यानयोग्य बिंदु, हज़रत इस्माईल का व्यक्तित्व है। जीवन और मृत्यु के बीच कुछ क्षणों की दूरी के बावजूद युवा इस्माईल का कृत संकल्प, अमर होने के साथ शिक्षाप्रद भी है। ईश्वर की इच्छा के समक्ष उनका नतमस्तक होना और आश्चर्यचकित कर देने वाली उनकी शालीनता, समस्त युवाओं के लिए ईश्वर की उपासना और उदारता का आदर्श है। यह सुन्दर और शक्तिशाली युवा, अपनी आयु के अन्य युवाओं की भांति अपने समय को हंसीखेल और मनोरंजन में व्यतीत कर सकता था किंतु जीवन के संबन्ध में उनकी पहचान इतनी गूढ थी कि उन्होंने अपने जीवन का सर्वोत्तम काल, ईश्वर के घर के निर्माण में बिताया और इस पवित्र स्थल की सेवा में व्यस्त हो गए। पवित्र क़ुरआन ने स्पष्ट शब्दों में हज़रत इस्माईल की विशेषताओं का उल्लेख किया है और उनके अनुसरण को प्रकाश और पहचान की प्राप्ति का कारण कहा है। हज़रत इब्राहीम के बड़े पुत्र और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) के पूर्वज हज़रत इस्माईल, एसे ईश्वरीय दूत हैं जो "ज़बीहुल्लाह" अर्थात ईश्वरीय क़ुरबानी के नाम से प्रसिद्ध हैं। पवित्र क़ुरआन में हज़रत इस्माईल का नाम १२ बार आया है। उन्हें भले, सच्चे तथा अच्छी शैली वाले ईश्वरीय दूत और काबे की इमारत के पुनर्निर्माण में हज़रत इब्राहीम के सहायक के रूप में पहचनवाया गया है। हज़रत इस्माईल ने अपने पिता के साथ काबे को अनेकेश्वरवाद की बुराई से पवित्र किया। उनका पवित्र अस्तित्व बचपन में ही ज़मज़म के अस्तित्व में आने तथा मक्के के विकास का कारण बना। क़ुरआन उनकी विशेषताओं और वरीयताओं पर बल देते हुए सूरए अनआम की आयत संख्या ८६ में कहता हैः- और हमने इस्माईल, यसअ, यूनुस और लूत को विश्ववासियों पर वरीयता दी है। क़ुरबानी का लक्ष्य, क़ुरबानी करने वाले की ओर से ईश्वर की निकटता और ईश्वरीय भय की प्राप्ति है। इस संबन्ध में क़ुरआन याद दिलाता है कि क़ुरबानी के गोश्त और उसके रक्त से ईश्वर को कोई लाभ नहीं है बल्कि उसतक जो पहुंचता है वह तुम्हारा ईश्वरीय भय है। हज में क़ुरबानी करना, हज़रत इब्राहीम और ईश्वर के प्रति उनकी श्रद्धा की याद को पुनर्जीवित करना है। क़ुरबानी वह कार्य है जो ईश्वर को प्रसन्न करने वाला और विकास तथा महानता की प्राप्ति के लिए सीढ़ी के समान है। क़ुरबानी के संबन्ध में इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि क़ुरबानी के रक्त की पहली बूंद जब धरती पर गिरती है तो क़ुरबानी करने वाले को क्षमा कर दिया जाता है। यह इसलिए है कि पता चले कि कौन प्रेम और समर्पण की भावना से ईश्वर की उपासना करता है। बक़रीद, तपस्या का त्योहार है। आजके दिन क़ुरबानी करके आंतरिक इच्छाओं का दमन किया जाता है। ईश्वर के मार्ग में क़ुरबानी करना, आंतरिक इच्छाओं को अपने से दूर भगाने के अर्थ में है जो मनुष्य को निश्चेत कर देती है और उच्चता तक पहुंच के मार्ग में बाधाएं डालती हैं। जब हम स्वेच्छा और समर्पण की भावना के साथ ईश्वर के मार्ग में क़ुरबानी करते हैं तो वास्तव में हमने लालच का गला घोंट दिया है। ईद इसी विजय का नाम है अतः उसे सम्मान दिया जाना चाहिए। ईश्वर के सामिप्य के लिए क़ुरबानी करने की परंपरा हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के काल से आरंभ हुई। हज़रत आदम के पुत्रों हाबील और क़ाबील ने अपनी-अपनी क़ुरबानियों को ईश्वर की सेवा में प्रस्तुत किया। पवित्र प्रवृत्ति वाला न होने के कारण क़ाबील की क़ुरबानी स्वीकार नहीं की गई। उस दिन से क़ुरबानी करना एक उपासना और धार्मिक परंपरा के रूप में प्रचलित हो गया। इस्लाम में क़ुरबानी करना, हज के महत्वपूर्ण संस्कारों में से एक है। इमाम मुहम्मद बाक़र अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि ईश्वर, क़ुरबानी करने को पसंद करता है। क़ुरबानी का एक लाभ यह है कि क़ुरबानी के गोश्त से भूखे और वंचित लाभान्वित होते हैं। मेना में की जाने वाली क़ुरबानी के गोश्त के लिए यदि कोई उचित प्रबंध किया जाए तो भूखों और वंचितों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु सार्थक भूमिका निभाई जा सकती है। मेना में हज के दौरान लाखों पशुओं की क़ुरबानी की जाती है। इस्लामी संस्कृति में ईद शब्द के विशेष अर्थ हैं। इस्लाम में ईद नवीनीकरण, परिवर्तन और मनुष्य की पवित्रता के अर्थ में है। ईश्वर से संपर्क और उसके साथ स्थाई लगाव, इस नवीनीकरण तथा परिवर्तन की भूमिका प्रशस्त करता है। मनुष्य के लिए वास्तव में उसी दिन ईद है जब वह बुराइयों से बचे और एक अन्य व्यक्तित्व मनुष्य में परिवर्तित हो जाए। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं- जिस दिन कोई पाप न किया जाए वही ईद का दिन है। ईदे क़ुरबान, मनुष्य की पवित्रता और पापों से उसकी स्वतंत्रता का दिन है तथा ईद सफलता का नाम है।

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