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शिया मुफ़स्सेरीन और उनके मुख़्तलिफ़ तबक़ात का तरीक़ ए कार

शिया मुफ़स्सेरीन और उनके मुख़्तलिफ़ तबक़ात का तरीक़ ए कार

जिन गिरोहों के मुतअल्लिक़ पहले ज़िक्र किया गया है कि वह अहले सुन्नत के तबक़ात के मुफ़स्सेरीन से ताअल्लुक़ रखते हैं और उन का तरीक़ ए कार एक ख़ास रविश पर मबनी है जो शुरु से ही तफ़सीर में जारी हो गई थी और वह है अदाहीसे नबवी का सहाबा केराम और ताबेईन के अक़वाल के साथ मामला, जिन में मुदाख़ेलते नज़रिया ऐसे ही है जैसे नस्से क़ुरआन के मुक़ाबले में इज्तेहाद हो, यहाँ तक कि उन रिवायात में जालसाज़ी, तज़ाद, तनाकुज़ आशकार होने लगा और ऐसे ही बनावट और जाल के ज़रिये उन मुफ़स्सेरीन को मुदाख़ेलते नज़रिया का बहाना हाथ आ गया।

लेकिन वह तरीक़ ए कार जो शियों ने क़ुरआनी तफ़सीर में अपनाया है वह मुनदरजा बाला रविश के बर ख़िलाफ़ है, लिहाज़ा इख़्तिलाफ़ के नतीजे में मुफ़स्सेरीन की तबक़ा बंदी भी दूसरी तरह की है।

शिया हज़रात क़ुरआने मजीद की नस्से शरीफ़ा के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) की हदीस को क़ुरआनी आयात की तफ़सीर में हुज्जत समझते हैं और सहाब ए केराम और ताबेईन के अक़वाल के बारे में दूसरे तमाम मुसलमानों की तरह बिल्कुल किसी हुज्जत के क़ायल नही है अलबत्ता सिवाए पैग़म्बरे अकरम (स) से मंसूब अहादीस के बग़ैर, उस के अलावा शिया हज़रात हदीसे मुतवातिर की तरतीब से अहले बैत (अ) और आईम्म ए अतहार के अक़वाल को पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस की कड़ियाँ जान कर उन को हुज्जत समझते हैं। इस तरह तफ़सीरी अहादीस व रिवायात को नक़्ल और बयान करने के लिये सिर्फ़ ऐसी रिवायात पर इक्तेफ़ा करते हैं जो फ़क़त पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से नक़्ल हुई हों, लिहाज़ा उन के मुनदर्जा ज़ैल तबक़ात हैं:

पहला तबक़ा: इस गिरोह में वह लोग मौजूद हैं जिन्होने रिवायाते तफ़सीर को पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) से सीखा है और अपने उसूल में बे तरतीबी साबित कर के उन की रिवायत शुरु कर दी है। जैसे ज़ोरारा, मुहम्मद बिन मुस्लिम, मारुफ़ और जरीर वग़ैरह।

दूसरा तबक़ा: यह हज़रात तफ़सीर की किताबों के मुअल्लिफ़ और मुफ़स्सिर हैं। जैसे फ़ुरात बिन इब्राहीम, अबू हमज़ा सुमाली, अयाशी, अली बिन इब्रहीम क़ुम्मी और नोमानी, साहिबे तफ़सीर हैं। उन हज़रात का शिव ए कार अहले सुन्नत के चौथे तबक़े के मुफ़स्सेरीन की तरह यह था कि लिखी हुई रिवायात को जो पहले तबक़े से हाथ लगी हों, सनदों के साथ अपने तालीफ़ात में दर्ज करते थे और उन में हर क़िस्म की नज़री दख़ालत से परहेज़ करते थे।

इस अम्र के पेशे नज़र कि आईम्म ए तक दस्तरसी का ज़माना बहुत तूलानी था जो तक़रीबन तीन सौ साल तक जारी रहा, फ़ितरी तौर पर उन दोनो तबक़ों को ज़माने के लिहाज़ के एक दूसरे से अलग करना मुश्किल है क्योकि यह आप में घुल मिल गये हैं और इसी तरह जो लोग रिवायात व अहादीस को असनाद और दस्तावेज़ात के बग़ैर दर्ज करें बहुत कम थे। इस बारे में नमूने के तौर पर तफ़सीरे अयाशी का नाम लिया जा सकता है कि जिस में से अयाशी के एक शागिर्द ने उन की तालीफ़ में से हदीसों की सनदों और दस्तावेज़ों को इख़्तिसार के सबब निकाल दिया था और उस का तैयार किया हुआ नुस्ख़ा अयाशी के नुस्ख़े की जगह रायज हो गया था।

तीसरा तबक़ा: यह गिरोह अरबाबे उलूमे मुतफ़र्रेक़ा पर मुश्तमिल है जैसे सैयद रज़ी अपनी अदबीयत के लिहाज़ से, शेख़ तूसी कलामी तफ़सीर के लिहाज़ से, जो तफ़सीरे तिबयान के नाम से मशहूर है और सदुरल मुतअल्लेहीन शिराज़ी अपनी फ़लसफ़ी के लिहाज़ से मैबदी गुनाबादी अपनी इरफ़ानी तफ़सीर के लिहाज़ से, शेख़ अब्दे अली जुवैज़ी, सैयद हाशिम बैहरानी, फ़ैज़ काशानी, तफ़सीर नुरुस सक़लैन में, बुरहान और साफ़ी वग़ैरह, जिन्होने बाज़ दूसरी तफ़ासीर में से उलूम जमा किये हैं। शेख़ तबरसी अपनी तफ़सीर मजमउल बयान में, जिस में उन्होने लुग़त, नहव, क़राअत, कलाम और हदीस वग़ैरह के लिहाज़ से बहस की है।

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