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Thursday 28th of March 2024
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शेख़ शलतूत का फ़तवा

शेख़ शलतूत का फ़तवा

इस्लाम धर्म ने अपने अनुयाईयों में से किसी को भी किसी ख़ास धर्म का अनुसरण करने के लिए बाध्य नही किया है



बल्कि कोई भी मुसलमान किसी भी धर्म पर जो सही तरह से नक़्ल हुआ हो और जिस के अहकाम उसकी किताबों में बयान हुए हों पर अमल कर सकता है।



इसलिये चारो धर्मों में से किसी का भी अनुयाई किसी भी दूसरे धर्म का अनुयाई बन सकता है।



शिया इसना अशरी एक ऐसा धर्म है जिसको मानना किसी भी अहले सुन्नत धर्म की तरह ही सही है इसलिए मुसलमानो को ये वास्तविक्ता जान लेनी चाहिए और इस धर्म



के बारे में बेजा पक्षपात और धार्मिक कट्टरपन से दूरी इख़्तियार करना चाहिये।



अहले सुन्नत के बहुत से प्रतिष्ठित उलेमा और धर्म गुरुओं ने इस इस इतिहासिक फ़तवे का समर्थन किया है।



शिया धर्म गुरू, तफ़्सीरे अल मीज़ान के लेखक, अल्लामा तबातबाई शेख़ शल्तूत के फ़तवे का समर्थन करते हुए फ़रमाते हैं



इत्तेहाद और इस्लामिक एकता व एकजुटता का हर अक़्ल समर्थन करती है इसी का पालन करते हुऐ पहले ज़माने के शिया कभी भी बहुसंख्यकों की पंक्ति से अलग नही हुऐ और इस्लाम की



उन्नति एवं प्रगति के लिये दूसरे तमाम मुसलमानों के साथ क़दम से क़दम मिलाया है।



और इसी लिए शिया धर्म गुरूओं ने तमाम इस्लामी धर्मों के दरमियान तक़रीब (एकता) का समर्थन किया गया है।



और अल अज़हर के शेख़ ने भी इस को साफ़ लफ़्ज़ो मे बयान किया है और शिया व सुन्नी मुसलमानो के बीच धार्मिक एकजुटता को पूरी दुनिया के सामने बयान किया है,



और शियों को इस सम्मानित व्यक्ति का आभारी होना चाहिये और इस के लिए उनका अभिवादन करना चाहिये।



शेख़ शल्तूत का इतिहासिक फ़तवा



अलअज़हर विश्वविध्यालय के कुलपति शेख़ शल्तूत के इतिहासिक कार्यों मे से एक शिया धर्म पर अमल को सही कहना है।



क्योंकि दारुल तक़रीब की स्थापना से ही इस्तेमार (सामराजी ताक़तों) ने एक तरफ़ तो शिया और दारुल तक़रीब के ख़िलाफ़ साज़िश करना शुरू कर दी,



और दूसरी तरफ़ से सऊदी हुकूमत अपनी सियासी और वहाबियों की धार्मिक कट्टपंथ्ता और इस्तेमार के लिये बिके हुऐ लेखकों की किताबो को जो कि



शियों के ख़िलाफ़ लिखी गयीं थी को छपवाया। इस लिये कि उनके लगता था कि दारुल तक़रीब की स्थापना से वहाबियत का प्रचार न हो सकेगा।



जब कि उस ज़माने की इस्लामी दुनिया में तक़रीब और तक़रीबी फ़िक्र दारुल तक़रीब व इरशादात की भुलाई न जा करने वाली ख़िदमात और अलअज़हर के



कुलपतियो की सत्य का समर्थन थी, जिस ने शेख़ शल्तूत के इस इतिहासिक फ़तवे के लिए पृष्ट भूमि तैयार की और ये इतिहासिक फ़तवा दिया गया,



वरना मुसलमान इस तरह से अपने मक़सद और उपदेशो से अंजान थे कि वह समझते थे कि उन के दरमियान इख़्तेलाफ़ बुनियादी व असासी है और कभी भी एक दूसरे के क़रीब नही आ सकते हैं



और इसी वजह से हमेशा एक दूसरे से दूर थे।

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