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Friday 29th of March 2024
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विलायत पर हदीसे ग़दीर की दलालत का इक़रार करने वाले हज़रात

विलायत पर हदीसे ग़दीर की दलालत का इक़रार करने वाले हज़रात

अहले सुन्नत के मुतअद्दिद उलामा ने काफ़ी हद तक इंसाफ़ से काम लिया है और हदीसे ग़दीर में इस हदीस को क़बूल किया है कि यह हदीस हज़रत अली (अ) की इमामत और सर परस्ती पर दलालत करती है, अगरचे दूसरी तरफ़ से इसकी तौजीह और तावील भी की है, अब हम यहाँ पर उनमें से बाज़ की तरफ़ इशारा करते हैं।

1.मुहम्मद बिन मुहम्मद ग़ज़ाली

मौसूफ़ हदीसे ग़दीर को नक़्ल करने के बाद कहते हैं: यह तसलीनॉम, रज़ा और तहकीम है, लेकिन इस वाक़ेया के बाद मक़ामे ख़िलाफ़त तक पहुचने और रियासत तलबी की मुहब्बत ने उन पर ग़लबा कर लिया..लिहाज़ा अपने बुज़ुर्गों के दीन की तरफ़ वापस पलट गये और इस्लाम से मुँह मोड़ लिया और अपने इस्लाम को कम क़ीमत पर बेच डाला, वाक़ेयन कितना बुरा मुआमला है।

इसी मतलब को सिब्ते बिन जौज़ी ने भी ग़ज़ाली से नक़्ल किया है।

सिर्रुल आलमीन पेज 39, 40 तबअ दारुल आफ़ाक़िल अरबिया मिस्र

तज़किरतुल ख़वास पेज 62

2.अबुल मज्द मजदूद बिन आदम, मारूफ़ बे हकीम निसाई

मौसूफ़ हज़रत अमीर की मदह में कहते हैं:

शेयर ...........

रोज़े ग़दीर मुझे रसूले अकरम (स) ने अपनी शरीयत का हाकिम क़रार दिया।

हदीक़तुल हक़ीक़ा, हकीम नेसाई

3.फ़रीदुद्दीन अत्तार नैशा पुरी

मौसूफ़ भी हदीसे ग़दीर के मअना के पेशे नज़र कहते हैं:

शेयर ............

मसनवी मज़हरे हक़

तर्जुमा ए अशआर

जब ख़ुदा वंदे आलम ने ग़दीरे ख़ुम में हुक्म नाज़िल किया कि ऐ मेरे रसूल, मेरे पैग़ाम को पहुचा दो और मुसलमानों के सामने इस पैग़ाम को आम कर दो क्योकि इस वक़्त यह रिसालत का सबसे अहम पैग़ाम है, लिहाज़ा रसूले इस्लाम (स) ने कहा: मैं इस पैग़ाम को पहुचा कर ही रहूँगा और असरारे हक़ को आसान कर दूँगा, जब जिबरईले अमीन नाज़िल हुए और असरारे इलाही को लेकर आये कि ख़ुदा वंदे क़ह्हार कहता है वह खुदा जो हय व क़य्यूम और आलिमुल ग़ैब है, मुर्तज़ा मेरे दीन पर वाली और हाकिम हैं और जो इस हुक्म को क़बूल न करे वह मुसलमान नही है।

4.मुहम्मद बिन तलहा शाफ़ेई

मौसूफ़ कहते है:

मालूम होना चाहिये कि हदीस (ग़दीर) आयए मुबाहेला में क़ौले ख़ुदे वंदे आलम के असरार में से है जहाँ इरशाद होता है:

(सूरए आले इमरान आयत 61)

आयत में लफ़्ज़े (अनफ़ुसना) से मुराद हज़रत अली (अ) कू जान है जैसा कि गुज़र चुका है, क्योकि ख़ुदा वंदे आलम ने रसूले अकरम (स) की जान और हज़रत अली (अ) को एक साथ क़रार दिया है और दोनो को एक साथ जमा किया है, लिहाज़ा हदीसे ग़दीर में जो कुछ मोमिनीन की निस्बत रसूले अकरम (स) के लिये साबित है वही हज़रत अली (अ) के लिये भी साबित है। पैग़म्बरे अकरम (स) की निस्बत औला, नासिर और मोमिनीन के आक़ा है, लफ़्ज़े मौला से जो मअना भी रसूले अकरम (स) के लिये हो सकते हैं, वही मअना हज़रत अली (अ) के लिये साबित हैं और यह एक अज़ीम व बुलंद मर्तबा है जिसको रसूले अकरम (स) ने सिर्फ़ हज़रत अली (अ) से मख़्सूस किया है, इसी वजह से रोज़े ग़दीरे ख़ुम, रोज़े ईद और औलियाए खु़दा के लिये ख़ुशी का दिन है।

तर्जुमा, तो कहो कि (अच्छा मैदान में) आओ हम अपने बेटों को बुलायें, तुम अपने बेटों को और हम अपनी औरतों को (बुलायें) और तुम अपनी औरतों को, और हम अपनी जानों को (बुलायें) और तुम अपनी जानों को उसके बाद हम सब मिल कर ख़ुदा की बारगाह में गिड़गिड़ायें और झूठो पर ख़ुदा की लानत करें।

मतालबुस सुउल पेज 44, 45

5.सिबते बिन जौज़ी

मौसूफ़ हदीसे ग़दीर के बारे में कहते है: इस हदीस के मअना यह है: जिसका मैं मौला और उस की निस्बत औला हूँ, पस अली भी उसकी निस्बत औला (बित्तसर्रुफ़) हैं।

6.मुहम्मद युसुफ़ शाफ़ेई गंजी

वह कहते हैं: लेकिन हदीसे ग़दीरे ख़ुम, औला (बित्तसर्रुफ़) और आपकी ख़िलाफ़त पर दलालत करती है।

तज़किरतुल ख़वास पेज 30 से 34

किफ़ायतुत तालिब पेज 166 से 167

7.सईदुद्दीन फ़रग़ानी

मौसूफ़ इब्ने फ़ारिज़ के एक शेयर की तशरीह करते हुए कहते हैं, चुनाँचे इब्ने फ़ारिज़ का शेयर यह है:

शेयर

फरग़ानी साहब कहते हैं: इस शेयर में इस मतलब की तरफ़ इशारा हुआ है कि हज़रत अली (अ) वह शख्सियत हैं जिन्होने क़ुरआने व सुन्नत की मुश्किल चीज़ों को बयान किया और अपने इल्म के ज़रिये किताब व सुन्नत के मुश्किल व पेचीदा मसायल को वाज़ेह किया है। क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनको अपना वसी और क़ायम मक़ाम क़रार दिया है जिस वक़्त आपने फ़रमाया: .......

शरहे ताइया ए इब्ने फ़ारिज़, फ़रग़ानी

8.तक़ीउद्दीन मक़रेज़ी

मौसूफ़ ने इब्ने ज़ूलाक़ से नक़्ल किया है: 18 ज़िल हिज्जा रोज़े ग़दीरे ख़ुम सन् 363 हिजरी को मिस्र और मग़रिब की जमाअत आपस में जमा होकर दुआ पढ़ने में मशग़ूल थी, क्योकि उस रोज़ हज़रते रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) से अहद किया और उनको अपना ख़लीफ़ा बनाया।

9.सअदुद्दीन तफ़ताज़ानी

मौसूफ़ हदीसे ग़दीर की दलालत के बारे में कहते हैं: (मौला) कभी आज़ाद करने वाले, कभी आज़ाद होने वाले, कभी हम क़सम, पड़ोसी, चचाज़ाद भाई, यावर और सर परस्त के मअना में इस्तेमाल होता है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है: (....) यानी नारे जहन्नम तुम्हारे लिये सज़ावार तर है, इस मअना को अबू उबैदा ने नक़्ल किया है और पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: ...................(यानी वह औरत जो अपने मौला की इजाज़त के बग़ैर किसी से निकाह कर ले) इस हदीस लफ़्ज़े मौला के मअना वली और सर परस्त के हैं, इस मअना की मिसाल अशआर में बहुत ज़्यादा पाई जाती हैं और तौर पर लफ़्ज़ मौला के के मअना कलामे अरब में मुतवल्ली, मालिक और औला बित तसर्रुफ़ के मशहूर हैं। जिनको बहुत से उलामा ए अहले लुग़त ने बयान किये हैं और इस लफ़्ज़ का मक़सूद यह होता है कि इस लफ़्ज़े मौला इस मअना के लिये इस्म है न कि सिफ़त और औला बित तसर्रुफ़ का क़ायम मक़ाम, जिससे यह ऐतेराज़ हो सके कि यह लफ़्ज़ इस्मे तफ़ज़ील का सिग़ा नही है और इस मअना में इस्तेमाल नही होता, जरूरी है कि हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला से यही मुराद लिये जायें, ताकि सद्रे हदीस से मुताबेक़त हासिल हो जाये और यह मअना यानी नासिर से भी मेल नही खाता, क्योकि ऐसा नही हो सकता कि पैग़म्बरे अकरम (स) इस गर्मी के माहौल और तपती हुई ज़मीन पर इतने बड़े मजमे को जमा करें और इस मअना को पहुचायें लिहाज़ा यह मतलब भी वाज़ेह है।

मौसूफ़ आख़िर में कहते हैं: यह बात मख़्फ़ी न रहे कि लोगों पर विलायत, उनकी सरपरस्ती, लोगों के उमूर में तदबीर करना और उनके कामों में दख़्ल अँदाज़ी करना पैग़म्बर अकरम (स) की मंज़िलत की तरह इमामत के मअना के मुताबिक़ है।

अल मवायज़ वल ऐतेबार बेज़िक्रिल ख़ुतत वल आसार जिल्द 2 पेज 220

शरहे मक़ासिद जिल्द 2 पेज 290

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