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Friday 29th of March 2024
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इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का जन्मदिवस

वर्ष ३८ हिज़री क़मरी ५ शाबान को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पौत्र इमाम अली बिन हुसैन पैदा हुए जिनकी एक उपाधि सज्जाद भी है। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुपुत्र इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम, सर्वसमर्थ व महान ईश्वर के प्रेम में डूबी बहुत महान आत्मा के स्वामी थे और उन्होंने अपनी दुआओं में एवं ईश्वर का आभार प्रकट करने में बहुत ही गूढ, सुन्दर और उच्च अर्थों वाले शब्दों का प्रयोग किया
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का जन्मदिवस



वर्ष ३८ हिज़री क़मरी ५ शाबान को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पौत्र इमाम अली बिन हुसैन पैदा हुए जिनकी एक उपाधि सज्जाद भी है।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुपुत्र इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम, सर्वसमर्थ व महान ईश्वर के प्रेम में डूबी बहुत महान आत्मा के स्वामी थे और उन्होंने अपनी दुआओं में एवं ईश्वर का आभार प्रकट करने में बहुत ही गूढ, सुन्दर और उच्च अर्थों वाले शब्दों का प्रयोग किया है। मानो महान ईश्वर ने उन्हें पैदा ही इसलिए किया ताकि वे दिन-रात उसकी उपासना व गुणगान करें और अपना शीष नवाकर सर्वोत्तम रूप में एकेश्वरवाद को संसार के समक्ष चित्रित करें। अपनी दुआ के एक भाग में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कहते हैं, हे मेरे पालनहार! कौन है जो तेरे प्रेम की मिठास को चखे और तेरे स्थान पर किसी अन्य की कामना करे? कौन है जिसे तेरी निकटता से प्रेम हो जाये और वह तूझसे दूरी करे? मेरे पालनहार! हमें उन लोगों में से बना जिन्हें तूने अपनी मित्रता एवं सामिप्य के लिए चुना है।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की महान व पावन आत्मा हर तुच्छ व मूल्यहीन चीज़ से दूर रहती और वह महान ईश्वर से सबसे अच्छी विशेषताओं व सदगुणों के लिए प्रार्थन करते हुए कहते हैं, मेरे पालनहार पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों पर सलाम भेज, मुझ पर कृपा कर और मेरी सहायता कर ताकि मैं उसके साथ अच्छा व्यवहार करूं जो मेरे साथ अप्रिय व्यवहार करता है और जो व्यक्ति मुझे वंचित करता है उसे प्रदान करूं, जो मुझसे संबंध विच्छेद करता है उसके साथ मैं संबंध स्थापित करूं और जो मेरी पीठ पीछे बुराई करता है मैं उसकी अच्छाइयों को याद करूं, अनुकंपा के प्रति आभास व्यक्त करूं और बुराइयों की अनदेखी करूं।
हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के सुपुत्र इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम कहते हैं" जब थोड़ी रात बीत जाती थी और घरवाले सो जाते थे तब मेरे पिता इमाम सज्जाद वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते और उसके पश्चात जो भी सामग्री घर में होती थी उसे एकत्रित करते थे और बोरी में डालते तथा उसे अपने कांधों पर रखकर उन मोहल्लों की ओर जाते थे जहां निर्धन व दरिद्र लोग रहते थे तथा खाने-पीने की चीज़ों को उनके मध्य बांटते थे। कोई उनको नहीं पहचानता था परंतु हर रात वे लोग मेरे पिता की प्रतीक्षा में रहते और अपने घरों का दरवाज़ा खुला रखते थे ताकि मेरे पिता उनका भाग उनके दरवाज़ों के सामने रख दें। उनके कांधों और पीठ पर घटटे तथा नील के चिन्ह थे जो निर्धनों व दरिद्रों के लिए खाद्य सामग्री लादकर ले जाने के कारण थे।
मनुष्य की रचना के आरंभ से लेकर आज तक उसकी एक विशेषता उसका सामूहिक रूप में रहना है। ऐसा सामाजिक जीवन जिसमें हर व्यक्ति को उसकी अपनी योग्यताओं एवं प्राप्त सम्भावनाओं के आधार पर उसे कुछ अवसर प्राप्त होते हैं और दूसरों के साथ मेल-मिलाप और लेन-देन करके वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा साथ ही दूसरों की आवश्यकताओं की भी आपूर्ति करता है। मानव समाज का कोई भी सदस्य, जिसके हम भी सदस्य हैं, अपनी मूल आवश्यकताओं की आपूर्ति अकेले नहीं कर सकता। हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम भलिभांति जानते थे कि वास्तविक आवश्यकतामुक्त केवल महान ईश्वर ही है और उसके अतिरिक्त सबको एक दूसरे की आवश्यकता होती है। अतः इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने जब एक व्यक्ति को यह कहते सुना कि हे ईश्वर हमें अपनी रचना व सृष्टि से आवश्कतामुक्त बना तो आपने उससे कहा ऐसा नहीं होता। लोगों को एक दूसरे की आवश्यकता रहती है। तुम यह कहो कि हे ईश्वर मुझे बुरी प्रवृत्ति वाले लोगों से आवश्यकतामुक्त बना।
वास्तव में मानवजाति से प्रेम और सृष्टि की सेवा मनुष्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। समाज के सदस्य उस भूमिका के कारण, जो एक दूसरे के जीवन को जारी रखने में निभाते हैं, एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम "रेसालए हुक़ूक़" नामक अपनी पुस्तक में लोगों के अधिकारों को बयान करते हैं और मार्गदर्शक, नेता, अधीनस्थ, परिवारजन, भला कार्य करने वाले तथा पड़ोसी, मित्र, भागीदार और निर्धन जैसे दूसरे लोगों यहां तक कि धन-सम्पत्ति का भी अधिकार बयान करते हैं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का मानना है कि लोगों को चाहिये कि वे एक दूसरे की सेवा करें और एक दूसरे की सहायता करके समाज की खाई को पाटें। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम दूसरी शैली व परिभाषा में इस सामाजिक संबंध की याद दिलाते हैं।
"लोगों के साथ भाई-चारा" शीर्षक के अंतर्गत आप इस प्रकार कहते हैं, जो व्यक्ति सक्षम होने की स्थिति में तुम्हारा ध्यान रखे और आवश्यकता पड़ने पर तुमसे दूर व अलग हो जाये तो ऐसा व्यक्ति बुरा भाई है। सामाजिक और धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्तियों का दायित्व है कि वे समस्त परिस्थितियों में एक दूसरे के साथ भलाई व अच्छाई करें।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के अनुसार सृष्टि की सेवा के लोक-परलोक में अत्यधिक लाभ हैं और सेवा का सबसे प्राकृतिक लाभ पीड़ित व्यक्ति की सहायता है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कहते हैं, दुनिया में कोई भी चीज़ मोमिन भाइयों की सहायता करने से अधिक उत्तम व भली नहीं है।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम विभिन्न स्थानों पर लोगों की सहायता करने वालों के लिए परलोक में प्रतिदान, पापों को क्षमा और स्वर्ग के महलों की शूभ सूचना जैसे प्रभावों व परिणामों को बयान करते हैं और स्वयं महान ईश्वर से इस प्रकार मांगते हैं, मेरे पालनहार! मोहम्मद और उनके परिजनों पर सलाम भेज और इस बात की कृपा कर कि मेरे हाथों से लोगों के लिए भला कार्य हो तथा ऐसा कर कि हमारे एहसान जताने से तू हमारे उस भले कार्य को व्यर्थ न करे।

हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कि जो महान ईश्वर के प्रेम में डूबकर अपने लिए इस प्रकार कृपा की मांग करते हैं, दूसरों को भी इस सामाजिक एवं धार्मिक दायित्व से अवगत करते हैं और उसके मूल्यवान प्रभावों को बयान करते हुए मोमिनों को एक दूसरे की सेवा व सहायता करने के लिए अधिक प्रेरित करते हैं। हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपने सुपुत्र इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से कहते हैं, जो तुमसे भलाई करने की मांग करे उसके लिए भला कार्य करो यदि वह व्यक्ति उस भले कार्य का योग्य व पात्र होगा तो तुमने सही किया अन्यथा तुम स्वयं भलाई के पात्र बन गये।
सेवा एक ऐसा कार्य है जो एक दूसरे के प्रति अधिकारों के निर्वाह से होता है और इसका दायरा बहुत विस्तृत है यह बात महान ईश्वर से लेकर मनुष्य, जीव-जन्तु और संसार की हर वस्तु पर लागू होती है।
जब सेवा का उद्देश्य महान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना होगा तो उसकी मात्रा महत्वपूर्ण नहीं होगी बल्कि सेवा की गुणवत्ता, निष्ठा और ईश्वर की प्रसन्नता को ध्यान में रखने के कारण मूल्यवान हो जायेगी। इस आधार पर कभी केवल एक दृष्टि और केवल एक व्यक्ति के हृदय में संतोष व शांति की भावना उत्पन्न करना मूल्यवान सेवा हो सकता है। अतः हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कहते हैं मोमिन का अपने मोमिन भाई के चेहरे को प्रेम से देखना उपासना है" आप बहुत सूक्ष्म व गहरी दृष्टि के साथ सेवा के आध्यात्मिक महत्व को याद दिलाते हुए कहते हैं" ईश्वर ने जिस व्यक्ति को तुम्हारी प्रसन्नता का कारण बनाया है और तुम्हें उसके हाथ से प्रसन्न बनाया है उसका अधिकार यह है कि यदि वास्तव में उसका इरादा तुम्हें प्रसन्न करना था तो तुम ईश्वर का आभार व्यक्त करो और पर्याप्त सीमा तक उसके आभारी रहो तथा उसकी ओर से इस प्रकार की सेवा के आरंभ होने के कारण तुम भी उसकी प्रसन्नता का कारण बनो और उसका बदला चुकाने का प्रयास करो, उससे प्रेम करो और उसके हितैषी रहो क्योंकि ईश्वर की अनुकम्पा के साधन जहां कहीं भी रहें वे स्वयं विभूति का कारण हैं यद्यपि वे न चाहते हुए भी क्यों न हों।
हज़रत इमाम सज्जाद लैहिस्सलाम अपरिचित व्यक्ति के रूप में और केवल महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए लोगों की सेवा करते थे। आप जब हज के अवसर पर पवित्र नगर मक्का की ओर कारवां के साथ जाते थे तो कारवां के ज़िम्मेदारों से बल देकर कहते थे कि वे उनका परिचय नहीं कराएंगे ताकि कारवां के लोग उन्हें पहचान न सकें और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम स्वतंत्र रूप से कारवां वालों की सेवा कर सकें। एक यात्रा में एक व्यक्ति ने आपको पहचान लिया और उसने कारवां के दूसरे लोगों से कहा क्या तुम लोग जानते हो कि यह व्यक्ति कौन है? उन सबने अनभिज्ञता जताई तो उस व्यक्ति ने कहा यह व्यक्ति इमाम हुसैन के सुपुत्र अली हैं। यह सुनना था कि वे लोग दौड़ पड़े और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के हाथ-पांव चूमे और क्षमा याचना करके कहा कि यदि हम लोग आपको पहचानते तो कभी भी इस प्रकार का कष्ट न करने देते। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं एक बार एक कारवां के साथ हज के लिए मक्का गया। कारवां के लोग मुझे पहचान गये उन लोगों ने मेरा बहुत आदर-सम्मान किया जैसाकि पैग़म्बरे इस्लाम का सम्मान करते हैं परिणाम यह हुआ कि मेरे सेवा करने के स्थान पर उन लोगों ने मेरी सेवा की। यही कारण है कि मैं यह पसंद करता हूं कि मुझे न पहचाना जाये।
प्रिय श्रोताओ पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुपुत्र हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस की शुभ बेला पर एक बार फिर आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम का समापन उनके एक स्वर्ण कथन से कर रहे हैं। आप कहते हैं" झूठ बोलने से बचो चाहे बड़ा झूठ हो या छोटा मज़ाक में हो या सच में क्योंकि यदि मनुष्य छोटा झूठ बोलेगा तो बड़ा झूठ बोलने का साहस पैदा हो जायेगा।


source : alhassanain
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