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शहादते ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की तारीख़ पर हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा फ़ाज़िल लंकरानी (मद्दा ज़िल्लाहुल आली) का पैग़ाम بسم الله الرحمن الرحيم ان الذين يوذون الله و رسوله لعنهم الله في الدنيا و الاخرة و اعد لهم عذاباً مهيناً قال رس
शहादते ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा



हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की तारीख़ पर
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा फ़ाज़िल लंकरानी (मद्दा ज़िल्लाहुल आली) का पैग़ाम


بسم الله الرحمن الرحيم
ان الذين يوذون الله و رسوله لعنهم الله في الدنيا و الاخرة و اعد لهم عذاباً مهيناً
قال رسول الله (ص) فاطمة بضعة مني يوذيني من اذاها


हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत के दिन हैं। वह ज़हरा जो उम्मे अबीहा और मादरे आइम्मा -ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम है। आप अहलेबैत इस्मत व तहारत का महवर हैं। आपकी ज़ाते बा बरकत एक ऐसी हक़ीक़त है जिसे आम इंसान तो क्या शिया और मुहिबाबाने अहलेबैत भी नही पहचान सके हैं। आपकी ज़ात की नूरानी हक़ीक़त ज़ुल्म, बुग़्ज़, दुश्मनी, हसद और जिहालत के पर्दों के पीछे छुप कर रह गई और अब क़ियामत तक ज़ाहिर भी नही होगी। शिया ही नही बल्कि तमाम इंसानियत और मलक व मलाकूत भी ऐसे वुजूद पर इफ़्तेख़ार करते हैं और अल्लाह के अता किये हुए इस कौसर को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वस्ल्लम के दीन की बक़ा और इंसानी समाज के उलूम व कमालात से मुज़य्यन होने को आपके बेटों का मरहूने मिन्नत समझते हैं। वाक़ेयन अगर ज़हरा सामुल्लाह अलैहा न होतीं और आइम्मा –ए- मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम का वुजूदे मुनव्वर न होता, तो आलमे तकवीन व तशरी पर किस क़द्र अंधेरा छाया हुआ होता ?
قل لا أسئلكم عليه اجراً الا المودة في القربي की रौशनी में तमाम इंसानों पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का एक मानवी हक़ है और वह, यह कि उनके अहलेबैत से मुहब्बत की जाये और जिनमें सबसे पहली फ़र्द हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की ज़ात है। यह हुक्म एक फ़र्ज़ की सूरत में हर ज़माने के इंसानों के लिए है, फ़क़त पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने के लोगों से ही मख़सूस नही है। हज़रत ज़हरा से मुहब्बत का मतलब, उनका एहतेराम, उनकी याद व ज़िक्र को बाक़ी रखना और उन पर होने वाले ज़ुल्मों को ब्यान करना है। हम उन पर होने वाले ज़ुल्मों को कभी नही भूल सकते हैं। तारीख़ गवाह है कि बहुत कम मुद्दत में आप पर इतने ज़ुल्म हुए कि आपकी शहादत के बाद सय्यदुल मुवाह्हिद अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि ज़हरा के रंज व ग़म दायमी है, वह कभी खत्म होने वाले नही हैं। क्या इसके बाद भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शिया और पैग़म्बर (स.) की उम्मते इस हुज़्न व मातम को तर्क कर सकते हैं ? नही, कभी नही। लिहाज़ा अहले बैत के तमाम शियों व मुहिब्बों को चाहिए कि तीन जमादि उस सानी को (जो कि सही रिवायतों की बिना पर हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की तारीख़ है।) शहज़ादी के ज़िक्र को ज़िंदा रखें, मजालिस करें, आपके ऊपर होने वाले ज़ुल्मों को ब्यान करें और नौहा ख़वानी, मातम व गिरया के ज़रिये हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा से अपनी अक़ीदत को ज़ाहिर करते हुए, आपके हुक़ूक़ के एक हिस्से को आदा फ़रमायें। इन्शाल्लाह।


मुहम्मद फ़ाज़िल लंकरानी
2 जमादि उस सानी सन् 1425 हिजरी क़मरी


source : alhassanain
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