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Friday 19th of April 2024
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एक मुसलमान को दूसरों के साथ किस प्रकार रहना चाहिये-4

इस्लाम के सबसे यह महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक इंसान में एकेश्वरवाद सहित अन्य आस्थाओं को मज़बूत करना है। यह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने लोगों के मार्गदर्शन के समय अपनी कोशिशों को इसी विषय पर केन्द्रित किया। इस्लामी लेहाज़ से प्रशिक्षित इंसान पर जो सृष्टि में सबसे श्रेष्ठ प्राणी है, यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि की अन्य चीज़ों के साथ अपना व्यवहार इस तरह का अपनाए कि सृष्टि में किसी प्रकार के अधिकारों का हनन न होने पाए।
एक मुसलमान को दूसरों के साथ किस प्रकार रहना चाहिये-4

इस्लाम के सबसे यह महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक इंसान में एकेश्वरवाद सहित अन्य आस्थाओं को मज़बूत करना है। यह विषय इतना महत्वपूर्ण  है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने लोगों के मार्गदर्शन के समय अपनी कोशिशों को इसी विषय पर केन्द्रित किया। इस्लामी लेहाज़ से प्रशिक्षित इंसान पर जो सृष्टि में सबसे श्रेष्ठ प्राणी है, यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि की अन्य चीज़ों के साथ अपना व्यवहार इस तरह का अपनाए कि सृष्टि में किसी प्रकार के अधिकारों का हनन न होने पाए।
 
 
 
इस्लाम में सिर्फ़ इंसानों के अधिकारों की रक्षा की बात नहीं कही गयी है बल्कि प्रकृति और पर्यावरण के भी अधिकार हैं जिसका हर व्यक्ति और मुसलमान को पालन करना चाहिए। दूसरे शब्दों में इस्लामी जीवन शैली में महत्वपूर्ण धार्मिक उपदेश इस बात पर केन्द्रित हैं कि ईश्वर, प्रकृति और मानव समाज से इंसान का संबंध व संपर्क कैसा होना चाहिए। इस दृष्टि से इंसान एक त्रिकोणीय तस्वीर के केन्द्र में है कि जिसके सबसे ऊपर वाले भाग में ईश्वर है और बाक़ी दो भुजाओं में मानव समाज और प्रकृति आती है। इस त्रिकोण में मानव समाज और प्रकृत्ति से ईश्वर का संबंध रचयिता का संबंध है। इसके मुक़ाबले में ईश्वर के साथ इन चीज़ों का संबंध, मालिक के सामने बंदे और रचयिता से रचना के संबंध जैसा है।
 
 
 
 
 
जो कुछ इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है उसके मुताबिक़ प्रकृति और पर्यावरण को इंसान के अधीन बनाया गया है। अर्थात ईश्वर ने इन चीज़ों को इन्सान की सेवा के लिए पैदा किया है लेकिन यह संबंध द्विपक्षीय है। यानी प्रकृति और पर्यावरण ईश्वर की ओर से इंसान के हवाले की गयी अमानत हैं और मानव समाज पर प्रकृति के संबंध में कुछ ज़िम्मेदारियां हैं। दूसरे शब्दों में जब इंसान ईश्वर और प्रकृति के साथ अपने संबंध पर ध्यान देगा तो देखेगा कि ईश्वर और प्रकृति के साथ उसका संबंध उसी तरह है जिस तरह स्वामी और सेवक का होता है किन्तु अन्य इंसानों और सृष्टि के साथ उसका संबंध आपसी सहयोग और न्याय पर आधारित है। जिस वक़्त इंसान प्रकृति और पर्यावरण को ईश्वर की ओर से उसे दी गयी अमानत के तौर पर देखेगा तो उसे बर्बाद करने से बचेगा और उससे हर प्रकार की अति से दूर रहते हुए लाभ उठाएगा। आइये देखते हैं कि आदर्श जीवन शैली के मुताबिक़ इंसान पर्यावरण को किस नज़र से देखता है।
 
 
 
 
 
पवित्र ईश्वर ने सृष्टि, ज़मीन और पर्यावरण को पैदा किया और उसे इंसान के हवाले कर दया ताकि वह अपने अध्ययन से इस बात को समझे कि वह किस तरह इन चीज़ों से ईश्वर के अनुपालन के मार्ग में लाभ उठा सकता है और पर्यावरण जैसी नेमत के साथ कैसा व्यवहार करता है। ईश्वर कहफ़ नामक सूरे की आयत नंबर 7 में कहता है, “जो कुछ ज़मीन पर है उसे हमने उसके लिए श्रंगार क़रार दिया ताकि आज़माएं कि तुममे कौन अच्छा व्यवहार करता है।” जिस वक़्त नेमतों और संभावनाओं को सृष्टि के उद्देश्य के तहत इस्तेमाल किया जाए उस वक़्त अति से बचना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में धार्मिक शिक्षाओं में पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया गया है और जो लोग पर्यावरण को बचाने के लिए कोशिश करते हैं उनके लिए बहुत बड़े भौतिक व आत्मिक बदले का उल्लेख किया गया है। जैसा कि इस संदर्भ में पैग़म्बर इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का कथन है, “जो भी व्यक्ति एक पेड़ लगाएगा तो ईश्वर उसके फल के जितना उसे बदला देगा।” इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति प्रकृति और भौतिक संभावनाओं को अनुचित रूप में इस्तेमाल करेगा तो इसका विनाशकारी परिणाम ख़ुद उसी को भुगतना पड़ेगा। प्रलय के दिन हर प्रकार की नेमतों के बारे में सवाल किया जाएगा और इंसान को यह समझना चाहिए कि पर्यावरण सार्वजनिक संपत्ति है और इसलिए उसे इसकी रक्षा के लिए कोशिश करनी चाहिए ताकि ख़ुद भी इससे लाभ उठाए।
 
 
 
जैसा कि इस संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है, “ज़िन्दगी शुद्ध हवा, पानी की बहुतायत और उपजाऊ ज़मीन के बिना अच्छी नहीं गुज़र सकती।”
 
 
 
प्राकृतिक स्रोतों की तबाही और उसे दूषित करना मौजूदा दौर की सबसे बड़ी मुश्किल है जिसने मानव जीवन को ख़तरे में डाल दिया है। वैज्ञानिकों के अनुसार, बाढ़, प्रदूषण, भूमिगत जलस्रोत में कमी और ओज़ोन की परत के बढ़ते दायरे जैसी प्राकृतिक समस्याएं, पर्यावरण की तबाही के कारण हैं।  धार्मिक शिक्षाओं की नज़र में प्राकृतिक स्रोतों और पर्यावरण की रक्षा, सबसे अहम आर्थिक व नैतिक मामला है। इस्लाम का पर्यावरण और प्रकृति के संबंध में दृष्टिकोण उस नज़रिये के ख़िलाफ़ है जिसमें प्रकृति और पर्यावरण को अंधाधुंध लाभ उठाने की नज़र से देखा जाता है। इस्लाम प्रकृति को बहुत सम्मान देता है। इस्लामी शिक्षाओं में पर्यावरण को मानव जीवन का अभिन्न अंग कहा गया है कि जिससे सही ढंग से लाभ उठाया जाना चाहिए।
 
 
 
 
 
जो कुछ ज़मीन और आसमान में है उसे ईश्वर ने पैदा किया है। जैसा कि बक़रह सूरे की आयत संख्या 29 में ईश्वर कह रहा है, “वह ऐसा पालनहार है जिसने ज़मीन में मौजूद हर चीज़ को तुम्हारे लिए पैदा किया। उसके बाद उसने सात आसमान बनाए। वह हर चीज़ का जानने वाला है।” इसके साथ ही ईश्वर ने प्रकृति और पर्यावरण को अमूल्यनेमत के रूप में इंसान के हवाले किया ताकि उससे अपनी ज़िन्दगी में सही ढंग से फ़ायदा उठाए। इस संदर्भ में जासिया सूरे की आयत 13 में ईश्वर कह रहा है, “जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, सबके सब को उसने तुम्हारा अधीन बना दिया है।” इस प्रकार ज़मीन पर ईश्वर के उत्तराधिकारी के रूप में इंसान में यह क्षमता मौजूद है कि वह न सिर्फ़ ज़मीन के स्रोतों बल्कि जो कुछ आसमान में है, वहां तक पहूच बना ले।
 
 
 
 
 
ईश्वर इंसान को ज़मीन पर हर प्रकार के भ्रष्टाचार से दूर रहने की नसीहत करता है। इस संदर्भ में आराफ़ सूरे की आयत 85 में ईश्वर कह रहा है, ज़मीन में उसके सुधार के बाद तबाही न फैलाओ। सीधी सी बात है कि पर्यावरण को दूषित करना और प्राकृतिक स्रोतों को तबाह करना, ज़मीन पर तबाही फैलाने के अर्थ में है। इस्लामी शिक्षाओं में ज़मीन को बरकत का स्रोत और मेहरबान मां से उपमा दी गयी है कि जिसकी देखभाल सब पर अनिवार्य है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का एक कथन है, “ज़मीन की रक्षा करो क्योंकि यही तुम्हारा आधार है।” एक और स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है, “बिना ज़रूरत पेड़ मत काटो।” एक और कथन में ज़मीन की सिंचाई को किसी प्यासे भले व्यक्ति को पानी पिलाने जैसे पुन्य के बराबर कहा गया है।
 
 
 
 
 
इस प्रकार इस्लामी जीवन शैली में इंसान को प्रकृति के संबंध में पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया गया है और इस विभूति से फ़ायदा उठाने के लिए नियम निर्धारित किए गए हैं। जैसा कि आप इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि जंगल, मैदान, मरुस्थल, पहाड़ और नदियों जैसी प्राकृतिक अनुकंपाओं से इंसान को ख़ुशी मिलती है। इसलिए इन विभूति को बर्बाद करने से इंसान अपनी ख़ुशी का गला अपने हाथ से घोटेगा। इसके बावजूद आज के इंसान ने अपने बुरे क्रियाकलापों से पर्यावरण के लिए गंभीर ख़तरा पैदा कर दिया है जो हर दिन और गहराता जा रहा है। इस दौर में हम यह देख रहे हैं इंसान बग़ैर किसी रोक टोक के प्राकृतिक स्रोतों को लूट रहा है और प्रकृति से संतुलित संबंध के बजाए उसके साथ अन्याय कर रहा है। हालांकि पर्यावरण स्थायी विकास का अभिन्न अंग है। स्थायी विकास उसे कहते हैं जिसमें प्राकृतिक स्रोत बर्बाद न हों और उन्हें कम से कम नुक़सान पहुंचे। जबकि पर्यावरण को बर्बाद करने की वर्तमान गति से न केवल यह कि स्थायी विकास नहीं होगा बल्कि ज़मीन पर इंसान अपने अस्तित्व को विलुप्त करने की ओर ले जा रहा है।
 
 
 
 
 
इस्लामी शिक्षाओं पर अगर पूरी तरह अमल किया जाए तो न सिर्फ़ यह कि स्थायी विकास होगा बल्कि दूसरे बहुत से फ़ायदे होंगे। इस्लाम ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभ उठाने पर आधारित मानव गतिविधियों को ऐसी दिशा देना चाहता है जिसमें अति का नामोनिशान न हो। इसके अलावा पर्यावरण के संबंध में इस्लाम का दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि इंसान उपभोग के संबंध में संतुलित मार्ग अपनाकर प्रकृति और समाज को ज़्यादा से ज़्यादा लाभ पहुंचा सकता है।


source : abna24
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