Hindi
Friday 19th of April 2024
0
نفر 0

पवित्र रमज़ान भाग-8

मनुष्य को बनाने वाले ईश्वर ने उसको जो भी आदेश दिये हैं वे निश्चित रूप से मनुष्य के ही हित में होते हैं चाहे विदित रूप से उसमें हमें अपना कोई नुक़सान नज़र आए। रमज़ान के रोज़े संभव है कि कुछ लोगों के लिए कष्टदायक हों किंतु अब यह स्पष्ट हो चुका है कि रोज़े के आध्यात्मिक लाभों के साथ ही साथ इसके शारीरिक लाभ ही बहुत हैं। पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं- रोज़ा खाओ ताकि स्वस्थ रहो।
अमरीका के एक डाक्टर एलेक्सिस कार्ल, रोगों के उपचार में रोज़े के महत्व पर बल देते हुए कहते हैं- हर रोगी को कुछ दिनों तक खाने से बचना चाहिए क्योंकि जब तक भोजन शरीर में पहुंचता रहेगा, रोगाणु विकसित होते रहेंगे किंतु जब खाना-पीना बंद कर दिया जाता है तो रोगाणु कमज़ोर पड़ जाते हैं। इसलिए इस्लाम में जो रोज़ा अनिवार्य किया है वह वास्तव में मनुष्य के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करता है।
"एक अज्ञात अस्तित्व" नामक अपनी पुस्तक में डाक्टर एलेक्सिस कार्ल, लिखते हैं कि रोज़ा रखने से रक्त की शर्करा यकृत में जाती है और त्वचा के नीचे इकटटठा होने वाली चर्बी मांसपेशियों तथा अन्य स्थानों पर इकटटठा प्रोटीन शरीर के प्रयोग में आ जाती है। वे आगे लिखते हैं कि रोज़ा रखने पर सभी धर्मों में बल दिया गया है। रोज़े में आरंभ में भूख और कभी स्नायू तंत्र में उत्तेजना और फिर कमज़ोरी का आभास होता है किंतु इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण एवं छिपी हुई दशा शरीर के भीतर व्याप्त हो जाती है जिसके दौरान शरीर के सभी अंग शरीर के भीतर और हृदय के संतुलन को बनाए रखने के लिए अपने उन विशेष पदार्थों की आहूति पेश करते हैं जिनका उन्होंने भण्डारण कर रखा होता है। इस प्रकार रोज़ा रखने से शरीर के सभी ऊतकों की धुलाई हो जाती है और उनमें ताज़गी आ जाती है।
इस्लाम में रोज़े के महत्व का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि एक बार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक साथी ने आपसे कहा, हे ईश्वर के दूत मुझको कोई अच्छा कर्म बताएं। इसपर पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा, रोज़ा रखो क्योंकि रोज़े जैसा कोई कर्म नहीं है और उसके पुण्य का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। उस व्यक्ति ने फिर यही प्रश्न किया। पैग़म्बरे इस्लाम ने उत्तर दिया रोज़ा रखो क्योंकि रोज़े जैसा कोई कर्म नहीं है। उस व्यक्ति ने तीसरी बार फिर पैग़म्बरे इस्लाम (स) से वहीं प्रश्न किया। तीसरी बार भी आपने कहा, रोज़ा रखो क्योंकि रोज़े से बड़ा कोई कर्म नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस कथन के पश्चात इमामा नामक इस व्यक्ति और उसकी पत्नी ने अपने पूरे जीवन रोज़े रखे।(एरिब डाट आई आर के धन्यवाद के साथ)


source : www.tebyan.net
0
0% (نفر 0)
 
نظر شما در مورد این مطلب ؟
 
امتیاز شما به این مطلب ؟
اشتراک گذاری در شبکه های اجتماعی:

latest article

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत
बिना अनुमति के हज करने की कोशिश ...
शिया समुदाय की उत्पत्ति व इतिहास (2)
बक़रीद के महीने के मुख्तसर आमाल
सबसे पहला ज़ाएर
কুরআন ও ইমামত সম্পর্কে ইমাম জাফর ...
दुआ ऐ सहर
आज यह आवश्यक है की आदरनीय पैगम्बर ...
रूहानी लज़्ज़ते
रोज़े की फज़ीलत और अहमियत के बारे ...

 
user comment