Hindi
Tuesday 23rd of April 2024
0
نفر 0

वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-11

वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-11

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि जिन विषयों के बारे में वह्हाबियों ने अत्यधिक हो हल्ला मचाया है उनमें से एक ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल या अपने कार्यों के लिए उनके माध्यम से ईश्वर से सिफ़ारिश करवाना है। सलफ़ी, तवस्सुल को एकेश्वरवाद के विरुद्ध बताते हैं और उनका कहना है कि ऐसा करने वाला अनेकेश्वरवादी है। अलबत्ता यह भी इस कट्टरपंथी मत की वैचारिक पथभ्रष्टताओं में से एक है क्योंकि क़ुरआने मजीद की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कथनों का तनिक भी ज्ञान रखने वाला हर समझदार व्यक्ति जानता है कि तवस्सुल न केवल यह कि एकेश्वरवाद से विरोधाभास नहीं रखता बल्कि यह अन्नय ईश्वर से निकट होने का माध्यम है और इसी कारण मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से तवस्सुल करते हैं ताकि कृपाशील उनके महान स्थान के वास्ते से उन पर कृपा दृष्टि डाले और उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार करे।

हर मुसलमान जानता है कि ईश्वर अनन्य है और वही विश्व की सभी वस्तुओं का स्रोत और हर घटना का मूल आधार है। इसी प्रकार ब्रह्मांड की समस्त वस्तुएं केवल ईश्वर की इच्छा और अनुमति से ही प्रभाव स्वीकार करती हैं। क़ुरआने मजीद ने अपनी रोचक शैली में बड़े ही सुंदर ढंग से इस बात को बयान किया है। सूरए अनफ़ाल की सत्रहवीं आयत में वह पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता हैः याद कीजिए उस समय को जब आपने (युद्ध में) तीर चलाया, तो वस्तुतः आपने नहीं बल्कि ईश्वर ने तीर चलाया। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा तीर चलाए जाने का मुख्य कारक ईश्वर को बताया गया है। अर्थात तीर पैग़म्बर ने भी चलाया और ईश्वर ने। यह आयत सभी को यह बताना चाहती है कि हर कार्य का मुख्य कारक ईश्वर है और सभी बातें व घटनाएं उसी की इच्छा से होती हैं तथा इस आयत में पैग़म्बर उस कार्य अर्थात तीर चलाने का माध्यम हैं।

उदाहरण स्वरूप मनुष्य क़लम द्वारा कोई बात लिखे तो क़लम इस बात का माध्यम होता है कि मनुष्य उसके द्वारा लिखने का काम करे। अब प्रश्न यह है कि क्या लिखने के समय मनुष्य और क़लम दोनों का रुतबा और स्थान एक ही है? खेद के साथ कहना पड़ता है कि वह्हाबी मत के लोग तवस्सुल के संबंध में भी शेफ़ाअत की ही भांति भ्रांति व पथभ्रष्टता का शिकार हो गए हैं और माध्यम व अनन्य ईश्वर को एक ही समझ बैठे हैं। इसी आधार पर उन्होंने मुसलमानों को काफ़िर एवं अनेकेश्वरवादी बताया है जबकि तवस्सुल, पैग़म्बरों को ईश्वर का समकक्ष बताने नहीं अपित पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम जैसे पवित्र लोगों को अनन्य ईश्वर के समक्ष अपनी प्रार्थनाओं की स्वीकृति के लिए माध्यम बनाने को कहते हैं।

ईश्वर का सामिप्य, बंदगी के मार्ग में मनुष्य के लिए सबसे उच्च एवं सम्मानीय दर्जा है। क़ुरआने मजीद ने सूरए माएदा की 35वीं आयत में स्पष्ट रूप से कहा है कि माध्यम व साधन के बिना ईश्वर का सामिप्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह कहता है। हे ईमान वालो! ईश्वर (के आदेश के विरोध) से डरो और (उससे सामिप्य के लिए) साधन जुटाओ तथा उसके मार्ग में जेहाद करते रहो कि शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। इस आयत में, जिसके संबोधन के पात्र ईमान वाले हैं, मोक्ष व कल्याण के लिए तीन विशेष आदेश दिए गए हैं। ये तीन आदेश हैं, ईश्वर से भय, ईश्वर से सामिप्य के लिए साधन जुटाना और ईश्वर के मार्ग में जेहाद करना। अब प्रश्न यह है कि इस आयत में साधन से तात्पर्य क्या है? इस आयत में साधन का अर्थ अत्यंत व्यापक है किंतु हर स्थिति में कोई वस्तु या व्यक्ति होना चाहिए जो प्रेम व उत्साह के साथ ईश्वर से सामिप्य का कारण बने। ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर पर ईमान, जेहाद तथा नमाज़, ज़कात, रोज़ा व हज जैसी उपासनाएं तथा दान दक्षिणा व परिजनों से मेल-जोल जैसी बातें भी ईश्वर से सामिप्य का कारण हो सकती हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम, उनके उत्तराधिकारियों तथा ईश्वर के प्रिय बंदों से तवस्सुल भी इन्हीं उपासनाओं की भांति है और क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार वह भी ईश्वर से सामिप्य का कारण बनता है।

क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों में कहा गया है कि पैग़म्बर भी ईश्वर के बंदों पर कृपा करते हैं। सूरए तौबा की 59वीं आयत में कहा गया है। और यदि जो कुछ ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने उन्हें प्रदान किया है उस पर वे प्रसन्न रहते और कहते कि ईश्वर हमारे लिए काफ़ी है, ईश्वर और उसके पैग़म्बर शीघ्र ही अपनी कृपा से हमें प्रदान करेंगे और हम ईश्वर की ओर से आशावान हैं (तो निश्चित रूप से यह उनके लिए बेहतर होता)। जब स्वयं क़ुरआन ने पैग़म्बर को प्रदान करने वाला बताया है तो फिर हम उनसे सहायता क्यों न चाहें और उनके उच्च स्थान को ईश्वर के समक्ष माध्यम क्यों न बनाएं? यही कारण है कि दयालु व कृपालु ईश्वर सूरए निसा की 64वीं आयत में मुसलमानों को पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश करवाने और उन्हें माध्यम बनाने हेतु प्रोत्साहित करता है। इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहा गया हैः और जब उन्होंने अपने आप पर अत्याचार किया और ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा की थी तो यदि वे आपके पास आते और ईश्वर से क्षमा याचना करते और पैग़म्बर भी उन्हें क्षमा करने की सिफ़ारिश करते तो निसंदेह वे ईश्वर को बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान पाते।

वह्हाबी मत के लोगों ने तवस्सुल का इन्कार करने के लिए क़ुरआने मजीद की कुछ आयतों को प्रमाण में प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप वे सूरए फ़ातिर की 14वीं आयत को प्रस्तुत करते हैं जिसमें कहा गया हैः (हे पैग़म्बर!) यदि आप उन्हें पुकारें तो वे आपकी पुकार नहीं सुनेंगे और यदि वे सुनें भी तो आपकी बात स्वीकार नहीं करेंगे और प्रलय के दिन वे आपके समकक्ष ठहराने (और उपासना) का इन्कार कर देंगे। और (जानकार ईश्वर की) भांति कोई भी आपको (तथ्यों से) सूचित नहीं करता। सूरए फ़ातिर में मूर्तियों की पूजा करने वालों को संबोधित करती हुई कई आयतें हैं और यह आयत भी उन्हें मूर्तियों की पूजा से रोकती है क्योंकि मूर्तियां न तो अपनी उपासना करने वालों की प्रार्थनाएं सुन सकती हैं और यदि सुन भी सकतीं तो उन्हें पूरा करने का उनमें सामर्थ्य नहीं है और न ही संसार में उनका तनिक भी कोई स्वामित्व है किंतु कुछ अतिवादी वह्हाबियों ने तवस्सुल व शेफ़ाअत के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा ईश्वर के अन्य प्रिय बंदों से मुसलमानों के संपर्क को समाप्त करने के लिए इस आयत और इसी प्रकार की अन्य आयतों का सहारा लिया है और कहा है कि ईश्वर को छोड़ कर पैग़म्बरों सहित वे सभी लोग, जिन्हें तुम पकारते हो, तुम्हारी बात नहीं सुनते हैं और यदि सुन भी लें तो उसे पूरा नहीं कर सकते। या इसी प्रकार सूरै आराफ़ की आयत क्रमांक 197 में कहा गया हैः और जिन्हें तुम ईश्वर के स्थान पर पुकारते हो वे न तो तुम्हारी सहायता कर सकते हैं और न ही अपनी रक्षा कर सकते हैं। वह्हाबी इसी प्रकार की अन्य आयतें प्रस्तुत करके पैग़म्बरों और इमामों से हर प्रकार के तवस्सुल का इन्कार कर देते हैं और इसे एकेश्वरवाद के विपरीत बताते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इन आयतों से पहले और बाद वाली आयतों पर एक साधारण सी दृष्टि डाल कर भी इस वास्तविकता को समझा जा सकता है कि इन आयतों का तात्पर्य मूर्तियां हैं क्योंकि इन सभी आयों में उन पत्थरों और लकड़ियों की बात की गई है जिन्हें ईश्वर का समकक्ष ठहराया गया था और उन्हें ईश्वर की शक्ति के मुक़ाबले में प्रस्तुत किया गया था।

कौन है जो यह न जानता हो कि पैग़म्बर और ईश्वर के प्रिय बंदे ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वाले उन लोगों की भांति हैं जिनके बारे में क़ुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि वे जीवित हैं। दूसरी ओर इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि इन पवित्र हस्तियों से तवस्सुल का अर्थ यह नहीं है कि हम इन्हें ईश्वर के मुक़ाबले में स्वाधीन शक्ति का स्वामी समझते हैं बल्कि लक्ष्य है कि उनके सम्मान और स्थान के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहें और ईश्वर की दृष्टि में उनकी जो महानता है उसके द्वारा ईश्वर से यह चाहें कि वह हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर ले और यह बात एकेश्वरवाद और ईश्वर की बंदगी से तनिक भी विरोधाभास नहीं रखती बल्कि यही एकेश्वरवाद है। इस आधार पर जैसा कि क़ुरआने मजीद ने सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 255 में सिफ़ारिश के संबंध में स्पष्ट रूप से कहा है कि कोई भी ईश्वर की अनुमति और आदेश के बिना सिफ़ारिश नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार उनसे तवस्सुल भी इसी माध्यम से होता है और ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। यही कारण है कि ईश्वर अपने पैग़म्बर के माध्यम से एक कथन में कहता है कि जान लो कि जिस किसी की कोई समस्या है और वह उसे दूर करना तथा कोई लाभ प्राप्त करना चाहता है या किसी अत्यंत जटिल व हानिकारक घटना में ग्रस्त हो गया है और चाहता है कि वह समाप्त हो जाए तो उसे चाहिए कि मुझे मुहम्मद व उनके पवित्र परिजनों के माध्यम से पुकारे ताकि मैं उसकी प्रार्थनाओं को उत्तम ढंग से स्वीकार करूं।

यही कारण है कि हम पैग़म्बरे इस्लाम के काल के वरिष्ठ मुसलमानों तथा अन्य धार्मिक नेताओं की जीवनी में देखते हैं कि वे समस्याओं के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की क़ब्र पर जाते, उनसे तवस्सुल करते तथा उनकी पवित्र आत्मा के माध्यम से ईश्वर से सहायता चाहते थे। इस संबंध में बहुत सी हदीसें हैं जिन्हें शीया और सुन्नी दोनों की विश्वस्त किताबों में देखा जा सकता है। इब्ने हजरे मक्की ने अपनी किताब सवाएक़े मुहरिक़ा में प्रख्यात सुन्नी धर्मगुरू इमाम शाफ़ेई के हवाले से लिखा कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की प्रशंसा में कविजाएं लिख कर उनसे तवस्सुल करते थे और कहते थे कि पैग़म्बर के परिजन मेरे माध्यम हैं, वे ईश्वर से सामिप्य के लिए मेरा साधन हैं, मुझे आशा है कि प्रलय के दिन उन्हीं के कारण मेरा कर्मपत्र मेरे सीधे हाथ में दिया जाएगा और मुझे मोक्ष प्राप्त होगा।

तवस्सुल की एक अन्य घटना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पत्नी हज़रत आएशा से संबंधित है। अबुल जोज़ा के हवाले से दारमी ने अपनी पुस्तक सहीह में लिखा कि एक वर्ष मदीना नगर में भारी अकाल पड़ा। हज़रत आएशा ने लोगों से कहा कि वे अकाल की समाप्ति के लिए पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल करें। उन्होंने ऐसा ही किया और फिर जम कर वर्ष हुई तथा अकाल समाप्त हो गया। सुन्नी मुसलमानों की सबसे विश्वस्त किताब सहीह बुख़ारी में वर्णित है कि दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने अकाल व सूखे के समय पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के चाचा अब्बास से तवस्सुल किया और कहा कि प्रभुवर! जब भी हम अकाल में ग्रस्त होते थे तो पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल किया करते थे और वर्षा होने लगती थी अब मैं तुझे उनके चाचा अब्बास का वास्ता देता हूं ताकि तू वर्षा को भेज दे। बुख़ारी ने लिखा है कि इसके बाद वर्षा होने लगी। सुन्नियों के एक बड़े धर्मगुरू आलूसी ने क़ुरआने मजीद की व्याख्या में लिखी गई अपनी किताब में तवस्सुल के संबंध में बड़ी संख्या में हदीसों का वर्णन किया है। वे इन हदीसों की लम्बी व्याख्या और तवस्सुल से संबंधित हदीसों के बारे में कड़ा रुख़ अपनाने के बाद अंत में कहते हैं कि इन सारी बातों के बावजूद मेरी दृष्टि में ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम से तवस्सुल में किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं है, चाहे उनके जीवन में हो अथवा मृत्यु के पश्चात। इसके बाद आलूसी ने यह भी लिखा है कि ईश्वर को पैग़म्बर के अतिरिक्त भी किसी अन्य का वास्ता देने में कोई रुकावट नहीं है किंतु उसकी शर्त यह है कि वह वास्तव में ईश्वर के निकट उच्च स्थान रखता हो।


source : hindi.irib.ir
0
0% (نفر 0)
 
نظر شما در مورد این مطلب ؟
 
امتیاز شما به این مطلب ؟
اشتراک گذاری در شبکه های اجتماعی:

latest article

मारेकए बद्र व ओहद और शोहदा ए करबला ...
ख़ुतब ए फ़िदक का हिन्दी अनुवाद
संतुलित परिवार में पति पत्नी की ...
वहाबियत, वास्तविकता व इतिहास 5
यमन में अमरीका, इस्राइल और सऊदी ...
अज़ादारी परंपरा नहीं आन्दोलन है 1
हसद
विलायत पर हदीसे ग़दीर की दलालत का ...
सूरए आराफ़ की तफसीर 2
वहाबियत, वास्तविकता और इतिहास-10

 
user comment