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Friday 19th of April 2024
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फ़ैमिलीज़ में प्यार-मुहब्बत की कमी

फ़ैमिलीज़ में प्यार-मुहब्बत की कमी

ख़ुदा ने औरत को कुछ ख़ास सलाहियतें देकर एक बहुत ही अज़ीम और ख़ूबसूरत रोल निभाने के लिए दुनाय में भेजा है और उसे यह ताक़त दी है कि इन सलाहियतों के ज़रिए वह अपनी ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह से पूरा कर सके। साथ ही उस की जिस्मानी बनावट, माँ वाली ख़ासियतों, ज़ेहन और इमोशंस ने उसके अन्दर एक ऐसी क्वालिटी पैदा कर दी है कि वह अपने इस सब से बड़े फ़रीज़े यानी बच्चे की परवरिश को सब से अच्छे अन्दाज़ में कर सकती है।

बच्चे की ज़रूरत सिर्फ़ माँ की गोद ही पूरा कर सकती है। दूसरी किसी भी जगह जैसे चिल्ड्रेन केयर सेंटर और बोडिंग हाउस वग़ैरा में बच्चों की ज़रूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता, चाहे उनमें हर तरह की सहूलियतें ही क्यों मौजूद हों। जिन बच्चों को माँ की मुहब्बत नहीं मिल पाती वह बहुत सी ज़ेहनी परेशानियों का शिकार रहते हैं लेकिन वेस्टर्न सोसाइटी में औरत घर से बाहर काम करने की वजह से अपनी हदों से बाहर निकल जाती है और बच्चों की परवरिश वाली अपनी एक अहम सलाहियत को बर्बाद कर देती है।

सच तो यह है कि कम्यूनिज़म और दूसरे स्कूल ऑफ़ थॉटस इंसान के नेचर को बदल नहीं सके हैं बल्कि उन्हों ने तो औरत को उसके असली रुतबे से भी हटा दिया है। इसी लिए आज वह बेशुमार रूहानी, समाजी और अख़लाक़ी मुश्किलों में फंसे हुए हैं जिनसे उन्हें निकालने वाला कोई नहीं है।

फ़्रांस के मशहूर फ़ल्सफ़ी, एलेक्सेस कार्ल यूरोपियन घरानों की इस ग़लती के बारे में इस तरह लिखते हैं, "आज के समाज की सब से बड़ी ग़लती यह है कि उसने चिल्ड्रेन केयर सेंटर्स को माँ की गौद जैसा समझ लिया है और यह ग़लती औरतों की ख़यानत का नतीजा है। जो माएं अपने बच्चों को इन सेंटर्स में भेज देती हैं ताकि वह आज़ाद ज़िन्दगी गुज़ार सकें, वह अपने घर की मुहब्बत की गर्मी को ख़त्म कर देती हैं। जो बच्चे घर में परवरिश पाते हैं उन के अन्दर आगे बढ़ने की सलाहियत उन बच्चों से कहीं ज़्यादा होती है जो घर के बाहर पाले जाते हैं।

अमेरिका में हर साल कोर्ट में तलाक़ के लिए जाने वाली 25औरतें वह होती हैं जो किसी किसी ज़ेहनी बीमारी का शिकार होती हैं और हर साल डेढ़ लाख बच्चे माँ-बाप की जुदाई की वजह से अचछी परवरिश से महरूम रह जाते हैं।

आज अमेरिकन औरत जब रात को अपने घर लौटती है तो पूरी तरह थकी हुई होती है जिस सि वह धीरे-धीरे ज़ेहनी मरीज़ हो जाती है और अगर घर में रहे तो फिर भी उसे दवा खा कर ही सुकून मिलता है। आए दिन साइकॉलोजिस्ट के पास जाती हैं लेकिन फिर भी परेशानी ख़त्म नहीं होती है और यह सारी मुश्किलें घर से बाहर कामों में हिस्सा लेने की वजह से हैं यानी एक ऐसे समाज की पैदावार हैं जो सिर्फ़ मशीन बन कर रह गया है और चौबीस घंटे बस दौड़-भाग होती रहती है।

डॉक्टर जार्ज माली कहते हैं, "जवानों की बहुत सी बुराईयां उन के बचपन की यादगार होती हैं जिस की ज़िम्मेदार ख़ुद माएं होती हैं। जो जवान झूट बोलता है, जो दूसरों को सताता है, जो समाजी ज़िन्दगी का पाबन्द नहीं है वह अपनी माँ से दूर रहने की वजह से इन बुरी आदतों का आदी बना है। ये ख़ुद अमेरिकी औरतों का ख़्याल है।"

आज वहां पैरेंटस और बच्चों के बीच प्यार मुहब्बत का रिश्ता बहुत कमज़ोर हो गया है। बच्चे सच्चा प्यार मिलने की वजह से अपने पैरेंटस से दूर हो जाते हैं और अक्सर बहुत दिनों तक पैरेंटस से मिल भी नहीं पाते या ऐसा भी होता है कि पैरेंटस अपने जवान और नौजवान बच्चों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं या क़ानूनी उम्र तक पहुंचने पर उन्हें घर से बाहर निकाल देते हैं या अगर घर में रहने की इजाज़त भी दे दें तो उन्हें अपना ख़र्च ख़ुद ही उठाना पढ़ता है।

इन बातों का असर ख़ास कर लड़कियों पर बहुत बुरा होता है जिस की बुनियाद पर वह अकेले रहना ज़्यादा पसंद करती हैं और अकेले रहने पर उनकी कोई देख-रेख करने वाला नहीं होता, इसी लिए वह बहुत सी अख़्लाक़ी बीमारियों में घिर जाती हैं।

वहाँ पर लोगों के आपसी ताअल्लुक़ात भी बहुत ही कमज़ोर हैं, दिली मुहब्बत और प्यार का जज़बा जैसे मशीनी ज़िन्दगी में फंस कर रह गया है। उस समाज में हमदर्दी, ख़ुलूस और क़ुरबानी नाम की कोई चीज़ नहीं पाई जाती है।

उस कल्चर्ड कही जाने वाली दुनिया में इंसानियत का जज़बा बिल्कुल ख़त्म ही हो चुका है। लोग एक दूसरे की मदद भी सिर्फ़ क़ानून की बुनियाद पर करते हैं। अगर एक आदिमी किसी मुश्किल में फंस जाए तो उसकी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता, कोई भी उसकी मदद कर के अपना माली नुक़्सान करने के लिए तैयार नहीं होता है लेकिन अगर क़ानून से मजबूर हों जैसे पुलिस का ख़तरा हो तो वह मदद करते हैं लेकिन वह इस काम को किसी नेक काम की वजह से करने को तैयार नहीं होते।

मैं जिस वक़्त जर्मनी के एक हॉस्पिटल में एटमिट था, मुझे देखने को आने वाले अगर्चे बहुत ज़्यादा नहीं थे लेकिन फिर भी उन जर्मनी मरीज़ों से मिलने वालों से कहीं ज़्यादा थे जो मेरे वार्ड में थे और इस बात से अस्पताल वालों को बहुत ताज्जुब होता था क्यों कि जर्मनी में तो मरीज़ों के घर वाले भी उनको देखने नहीं आते।

यहाँ पर मैं एक सच्ची कहानी सुनाना चाहता हूँ, कुछ साल पहले जर्मन की एक यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने हम्बर्ग शहर की जमीअते इस्लामी के प्रेसीडेंट के सामने इस्लाम क़बूल किया और कुछ दिनों बाद वह बीमार हो कर एक अस्पताल में भर्ती हो गए। जमीअते इस्लामी के प्रेसीडेंट उस प्रोफ़ेसर को देखने गए। देखा कि वोह प्रोफ़ेसर कुछ परेशान हैं। उन्हों ने उन से उस की वजह पूछी तो प्रोफ़ेसर ने कुछ इस तरह से जवाब दिया, "आज मेरी बीवी और बच्चे मुझे देखने आए थे और जब उन्हें डॉक्टर ने बताया कि मुझे कैंसर है तो वह जाते वक़्त मुझे कह गए हैं कि आप को कैंसर है और अब आप की ज़िन्दगी के ज़्यादा दिन बाक़ी नहीं हैं। इस लिए हम आप को आख़िरी बार ख़ुदा हाफ़िज़ी कर रहे हैं और आज के बाद हम आप को देखने के लिए नहीं आएंगे। हमें माफ़ कर दीजिएगा।"

इस के बाद उन्हों ने कहा कि मुझे अपनी बीमारी और मर जाने का कोई ग़म नहीं है लेकिन अपने घर वालों के इस बर्ताव से बहुत सदमा पहुंचा है।

यह सुन के जमीअते इस्लामी के प्रेसीडेंट ने उन से कहा कि इस्लाम में मज़ीर को देखने लिए जाने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। इस लिए जब भी मौक़ा मिलागा हम आप को देखने के लिए ज़रूर आएंगे और अपना दीनी फ़र्ज़ पूरा करेंगे।

बेचारे बीमार की हालत बिगड़ती गई। यहाँ तक कि वह एक दिन दुनिया से रुख़सत हो गया। और कुछ मुस्लमानों ने अस्पताल में जा कर लाश को लिया और जनाज़े को क़ब्रिस्तान में ले आए। क़िस्सा यहीं ख़त्म नहीं हुआ बल्कि जैसे ही वह लोग दफ़्न करने वाले थे वैसे ही एक नौ जवान भागा-भागा आया और बड़े ही ग़ुस्से से पूछने लगा कि प्रोफ़ेसर का जनाज़ा कहाँ हैलोगों ने उस से पूछा कि तुम्हारा उस से क्या रिश्ता है, उसने कहा कि वह मेरे बाप थे और मैं उन की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजना चाहता हूँ क्यों कि मैंने उन की लाश को अस्पताल वालों को बेच दिया था। जनाज़ा लेने के लिए उसने बहुत कोशिश की लेकिन वहां मौजूद लोगों की वजह से वह जनाज़ा नहीं ले सका और चुप हो गया।

जब उस जवान के पेशे के बारे में उस से पूछा गया तो उसने बताया कि वह सुब्ह में किसी कारख़ाने में काम करता है और शाम में कुत्तों की सजावट का काम करता है।

इस सच्चे वाक़िए से पता चल जाता है कि वहां कि कल्चर्ड कही जाने वाली सोसाइटी में प्यार-मुहब्बत की कितनी कमी है।

आज इंसानियत अख़्लाक़ी बुराईयों के दलदल में धसती चली जा रही है। बड़े-बड़े स्कॉलर्स ने इस हक़ीक़त को मानते हुए अभी से सुधार की कोशिश शुरु कर दी है। जो लोग ख़ुद ऐसी ज़िन्दगी में डूब चुके हैं उन्हें अंदाज़ा हो गया है कि ऐसी ज़िन्दगी कभी भी इंसान को कमाल और कामयाबी तक नहीं पहुंचा सकती, ये तो बिल्कुल खोकली ज़िन्दगी है।

आज हमें अपने चारो तरफ़ बेरंग ज़िन्दगी दिखाई देती है। हम अपनी रूह की प्यास को बुझाना चाहते हैं, रूहानी कमीयों के मुक़ाबले में हमें रूहानी ख़ुराक चाहिए। इन सब मामलों के हल के लिए हमें ख़ुद अपनी तरफ़ देखना चाहिए। जब हम अपनी रूह की आवाज़ पर लब्बैक कहेंगे तो हमें नज़र आयेगा कि हमारी रूह अच्छाई, पाकदामनी और मुहब्बत को पसंद करती है।

फ़्रेंच फ़ल्सफ़ी एलेक्सेस कार्ल कहते हैं, "हमें ऐसी दुनिया चाहिए जिस में हर इंसान शुरु ही से अपनी ज़रूरतों को पूका कर सके, जिसमें जिस्मानी और रूहानी ज़िन्दगी अलग-अलग हो। हमें यह बात समझना पड़ेगी कि हमें कैसी ज़िन्दगी जीना है क्यों कि अब हम यह जान चुके हैं कि ज़िन्दगी के रास्ते को बग़ैर किसी गाईड और रेहनुमा के तय करना बहुत ख़तरनाक है लेकिन ताअज्जुब है कि इस ख़तरे के एहसास ने हमें ज़िन्दगी के रास्ते की तलाश पर मजबूर नहीं किया है। सच तो यह है कि ऐसे लोग बहुत कम हैं जो इस ख़तरे को अच्छी तरह समझते हैं।"

ज़्यादा तर लोग तो अपनी मन मानी ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते हैं और मॉडर्न टेक्नॉलोजी की बनाई गई मशीनों में गर्दन-गर्दन डूबे रहना चाहते हैं। आज हम एक ऐसी दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं जो हमारी हक़ीक़ी ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकती है बल्कि हम उन ज़रूरतों से बिल्कुल मुँह मोड़ चुके हैं। हम दुनियावी ज़िन्दगी को रूहानी ज़िन्दगी से आगे रखते हैं और अरनी सारी ताक़त को सिर्फ़ अपनी बेहूदा ख़ुशियों और अपने आराम पर क़ुरबान कर देते हैं।

मशीनी इंसान आज की तरक़्क़ियों और साइंस की पैदावार है, इंसानियत की पैदावार नहीं है। मसअला यह नहीं है कि हम इन तरक़्क़ियों और साइंस को छोड़ बैठें बल्कि बात सिर्फ़ इतनी सी है कि अगर हम आज की इस अख़्लाक़ी बुराईयों के दलदल से निजात चाहते हैं तो हमारे सामने सिर्फ़ एक रास्ता है और वह यह है कि आज की इन सारी तरक़्क़ियों और साइंस की इस जगमगाती दुनिया के साथ-साथ नबियों की टीचिंग्स पर भी अमल करें। जब तक हमारी अक़्ल, हमारी दुनियावी ख़्वाहिशों के पंजे में गिरफ़्तार है उस वक़्त तक इंसानियत के कमाल और कामयाबी की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। बहरहाल जब तक हक़ीक़ी इंसानियत और रूहानी वैल्युज़ की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक इंसान का हक़ीक़ी चेहरा दुनिया के सामने नहीं सकता है।


source : welayat.com
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