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पादरी जो मुसलमान हो गया

पादरी जो मुसलमान हो गया

इब्राहिम खलील अहमद जिनका पुराना नाम खलील फिलोबस था, पहले इजिप्ट के कॉप्टिक पादरी थे। फिलोबस ने धर्मशास्त्र में प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से एम किया। इस्लाम को गलत रूप में पेश करने के मकसद से फिलोबस ने इसका अध्ययन किया। वे इस्लाम में कमियां ढूढना चाहते थे लेकिन हुआ इसका उलटा। वे इस्लाम से बेहद प्रभावितहुए और उन्होने अपने चार बच्चों के साथ इस्लाम कबूल कर लिया।

जानिए खलील इब्राहिम आखिर कैसे आए इस्लाम की गोद में?मैं १३जनवरी १९१९को अलेक्जेन्डेरिया में पैदा हुआ था। मैंने सैकण्डरी तक की शिक्षा अमेरिकन मिशन स्कूल से हासिल की। १९४२ में डिप्लोमा हासिल करने के बाद मैंने धर्मशास्र में स्पेशलाइजेशन के लिए यूनिवर्सिटी में एडमिशान लिया। धर्मशास्र में प्रवेश लेना आसान नहीं था। चर्च की खास सिफारिश पर ही इस विभाग में एडमिशन लिया जा सकता था और इसके लिए एक मुशिकल परीक्षा से भी गुजरना पडता था। मेरे लिए अलेक्जेन्डेरिया अलअटारिन चर्च ने सिफारिश की और लॉअर इजिप्ट की चर्च असेम्बली ने भी मेरा इम्तिहान लिया। 
असेम्बली ने धर्म के क्षेत्र में मेरी योग्यता का अंकन किया। नोडस चर्च असेम्बली ने भी मेरी सिफारिश की। इस असेम्बली में सूडान और इजिप्ट के पादरी थे। कुल मिलाकर मुझे धर्मशास्र विभाग में एडमिशान के लिए कडे इम्तिहानों से गुजरना पडा।१९४४ में बोर्डिंग स्टूडेंट के रूप में धर्मशास्र विभाग में एडमिशान के बाद मैंने १९४८ तक ग्रेजुएशन के दौरान अमेरिकन और इजिप्टियन टीचर्स से अध्ययन किया।

शिक्षा पूरी होने पर मुझे यरूशलम में नियुक्त किया जाना था लेकिन इस्राइल और फिलीस्तीन के बीच युध्द छिड़ जाने के कारण में वहां नहीं गया और मुझे उसी साल इजिप्ट के आसना में भेज दिया गया। इसी साल मैंने अमेरिकन यूनिवर्सिटी से थिसिस के लिए अपना पंजीयन कराया। मेरे थिसिस का सब्जेक्ट था-मुसलमानों के बीच ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां।इस्लाम से मेरा परिचय तब हुआ था जब मैंने धर्मशस्र का अध्ययन शुरू किया था। वहां मैंने इस्लाम और मुसलमानों के विशवास और विचारधारा को डगमगाने और भ्रमित करने उनके धर्म से संबंधित उनके बीच गलतफहमियां पैदा करने के तरीकों का अध्ययन किया।मैंने अमेरिका की प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से १९५२ में एम किया। फिर मैं एसूट में धर्मशास्र विभाग में टीचर नियुक्त हुआ। मैं स्टूडेंट को इस्लाम से जुड़ी वे बातें ही पढ़ाता था जो ईसाई मिशनरी मुसलमानों के खिलाफ आम लोगों के बीच बताती थीं। इस्लाम विरोधी ताकतों की ओर से फैलाई जाने वाली झूठी भा्रंतियों को बताकर इस्लाम का गलत रुप स्टूडेंट के सामने पेश करता था। इस्लाम संबंधी अपनी इस क्लास के दौरान मुझे महसूस होने लगा कि मुझे इस्लाम संबंधी अपनी जानकारी को बढाना चाहिए।

मैंने तय किया कि मुझे ईसाई मिशनरियों की इस्लाम के खिलाफ लिखी किताबों के अलावा मुस्लिम लेखकों की किताबें भी पढनी चाहिए। मैंने कुरआन को समझकर पढने का भी निर्णय किया। ज्यादा से ज्यादा इस्लाम की जानकारी हासिल करने के पीछे मेरा मकसद इस्लाम में और खामियां निकालना था। इस अध्ययन का नतीजा मेरी सोच के बिल्कुल उलट निकला। मैं अजीब कशमकश में फंस गया। मेरे मन में अंतरव्ंदव्द चलने लगा क्योंकि अब तक जो कुछ मैं इस्लाम की कमियां लोगों को बताता था ऐसा मैंने कुरआन के अध्ययन में नहीं पाया। मेरे आरोप मुझे निराधार लगने लगे। मैं इस सच्चाई का सामना करने से कतराता रहा और मैंने इस्लाम का नेगेटिव अध्ययन कराना जारी रखा।

१९५४ में मैं जर्मन स्विस मिशन के महासचिव के रूप में आसवान गया। वहां भी मुझे इस्लाम संबंधी भ्रांतियां पैदा करनी थी जो मेरे मिशन का हिस्सा थी। एक होटल में मिशनरी की ओर से कॉन्फ्रेस का आयोजन किया गया। इस मौके पर मैंने इस्लाम को लेकर कई भा्रंतियां पैदा की। अपने लेक्चर के अंत में मेरे मन में अंतव्र्दव्द शुरू हो गया। मैं अपनी इस भूमिका के बारे में सोचने लगा। मैं अपने आपसे सवाल करने लगा कि सच्चाई जानने के बावजूद मैं आखिर झूठ क्यों बोल रहा हूं? आखिर मैं सच्चाई से मुंह क्यों मोड़ रहा हूं? इसी कशमकश के बीच मैं कॉन्फ्रेस खत्म होने से पहले ही वहां से अपने घर के लिए रवाना हो गया। मैं मंथन करने लगा।

इस बीच जब मैं एक पार्क की तरफ जा रहा था तो मैंने रेडियो में कुरआन की यह आयत सुनी-    कह दो-मेरी ओर ईवर ने ज्ञान भेजा है कि जिन्नों के एक गिरोह ने कुरआन सुना, फिर जिन्नों ने कहा कि हमने एक मनभाता कुरआन सुना जो भलाई और सूझबूझ का मार्ग दिखाता है; इसलिए हम उस पर ईमान ले आए और अब हम कभी किसी को अपने रब का साझी नहीं ठहराएंगे। 

कुरआन ७२ :-

और यह कि जब हमने हिदायत की बात सुनी तो उस पर ईमान ले आए। अब जो कोई अपने रब पर ईमान लाएगा,उसे तो किसी हक के मारे जाने का भय होगा और किसी जुल्म ज्यादती का।   कुरआन ७२ :१३ 

कुरआन की यह आयत सुनने के बाद उस रात मुझे सुकून का एहसास हुआ। घर पहुचने के बाद मै पूरी रात लाइब्रेरी में बेठकर कुरआन पढ़ता रहा। मेरी पत्नी ने मुझसे पूरी रात बैठे रहने का कारण पूछा लेकिन मैंने उससे मुझे अकेले छोड़ देने को कहा। मैं काफी देर तक कुरआन की इस आयत पर गौर फिक्र करता रहा-

यदि हमने इस कुरआन को किसी पर्वत पर भी उतार दिया होता तो तुम अवश्य देखते अल्लाह के भय से वह दबा हुआ और फटा जाता है। ये मिसालें हम लोगों के लिए इसलिए पेश करते हैं कि वे सोच विचार करें। कुरआन ५९:२१

मैंने इन आयतों पर भी चिंतन किया

तुम ईमान वालों का दुशमन सब लोगों से बढकर यहूदियों और मुशरिकों को पाओगे और ईमान वालों के लिए मित्रता में सबसे निकट उन लोगों को पाओगे जिन्होने कहा कि -हम ईसाई हैं। यह इस कारण कि ईसाईयों में बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं। और इस कारण कि वे अहंकार नहीं करते। जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आखें आंसुओं से छलकने लगती हंै इसका कारण यह है कि उन्होने सच्चाई को पहचान लिया है वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। इसलिए तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। और हम अल्लाह पर और जो सत्य हमारे पास पहुंचा है उस पर ईमान क्यों नहीं लाएं,जबकि हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमें अच्छे लोगों के साथ हमें जन्नत में दाखिल करेगा। 

कुरआन :८२-८४

मैंने इन आयात पर भी गौर किया- 

तो आज इस दयालुता के अधिकारी वे लोग हैं जो उस रसूल उम्मी का अनुसरण करते हैं,जिसके बारे में वे अपने यहां तौरात और इंजील में लिखा पाते हैं। और जो उन्हे भलाई का हुक्म देता है और बुराई से रोकता है। उनके लिए अच्छी स्वच्छ चीजों को हलाल और बुरी अस्वच्छ चीजों को हराम ठहराता है और उन पर से उनके वह बोझ उतारता है,जो अब तक उन पर लदे हुए थे। उन बन्धनों को खोलता है,जिनमें वे जकड़े हुए थे। अत जो लोग उस पर ईमान लाए, उसका सम्मान किया और उसकी सहायता की और उस हिदायत के मार्ग पर चले जो वो लेकर आए,तो ऐसे ही लोग सफलता प्राप्त करने वाले हैं।

कहो- लोगो! मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का रसूल हूं जो आकाशों और धरती के राज्य का स्वामी है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं,वही जीवन देता है और वही मौत देता है। अत अल्लाह और उसके रसूल,उस उम्मी नबी पर ईमान लाओ जो खुद अल्लाह और उसके कलाम पर ईमान रखता है। उसका अनुसरण करो,ताकि तुम सही राह पा लो। कुरआन :१५७-१५८

उस रात मैंने सच्चाई जान ली और फिर इस्लाम कबूल करने का फैसला कर लिया। सुबह मैंने अपने इस फैसले के बारे में अपनी पत्नी को बताया। मेरे तीन बेटे और एक बेटी हैं। मेरी पत्नी को यह एहसास होने पर कि मैं जल्दी ही इस्लाम कबूल करने जा रहा हूं तो उसने बिना देरी किए ईसाई मिशनरी के मुखिया से मदद मांगी और मुझे रोकने को कहा। मिशनरी के मुखिया स्विटजरलेंड के मॉन्सियोर शोविटस बहुत चतुर व्यक्ति थे। मॉन्सियोर के पूछने पर मैंने उनको साफ साफ बता दिया कि मैं अब इस्लाम अपनाना चाहता हूं, यह जानकर उन्होने मुझसे कहा कि ऐसा करने पर तुम्हे नौकरी से निकाल दिया जाएगा और इसके लिए तुम खुद जिम्मेदार बनोगे। मैंने तुरंत अपना इस्तीफा उनको पकड़ा दिया। उन्होने मुझ पर अपना फैसला वापस लेने का दबाव बनाया और मेरी मानसिकता बदलने की काफी कोशिश की लेकिन मैं अपने फैसले पर अटल था। मुझे अपने फैसले पर अडिग देख मॉन्सियोर ने मेरे बारे में अफवाह उड़ा दी कि मैं पागल हो गया हूं। फिर तो मुझे बेहद मुशिकलों का सामना करना पड़ा। मुसीबतों से परेशान होकर मैं आसवान छोड़कर वापस केअरो गया। केअरो में मेरा परिचय एक सम्मानीय और अच्छे प्रोफेसर से हुआ। उन्होने मेरे बारे में बिना कुछ जाने मुसीबतों और परेशानियों के दौर में मेरा साथ दिया। मैंने उनके सामने अपना परिचय एक मुस्लिम के रूप में दिया था हालांकि तब तक मैंने आफिसियल रूप से इस्लाम कबूल नहीं किया था। डॉ मुहम्मद अब्दुल मोनेम अल जमाल नाम के यह व्यक्ति कोसागार में सचिव थे। उनकी इस्लामिक अध्ययन में जबरदस्त दिलचस्पी थी और वे कुरआन का अमेरिकी अंगे्रजी में अनुवाद कराने के इच्छुक थे। उन्होने कुरआन के अनुवाद के लिए मुझसे मदद चाही क्योंकि मेरी अंग्रेजी अच्छी थी और मैं अमेरिकन यूनिवर्सिटी से एम कर चुका था। वे यह भी जानते थे कि मैं कुरआन,तोरात और बाइबिल का तुलनात्मक अध्ययन कर रहा हूं। मैंने उनकी कुरआन के अनुवाद में मदद की।इस बीच जब डॉ जमाल को पता चला कि मैंने नौकरी छोड़ दी है और इन दिनों मैं बेरोजगार हूं तो उन्होने मुझे केअरो में ही नौकरी दिलाने में मेरी मदद की। और इस तरह मेरी गाड़ी फिर से पटरी पर गई। इस दौरान पत्नी से दूर रहने पर उसको लगा कि मैंने उसको भुला दिया है जबकि उससे दूरी इस बीच की उथल पुथल के कारण हुई थी। इस्लाम ग्रहण करने के ऐलान का इरादा मैंने कुछ वक्त के लिए टाल दिया क्योंकि मैं इससे उत्पन्न होने वाली स्थितियों से निपटने के लिए खुद को और मजबूत बनाना चाहता था। १९५५ में मैंने अपना इस्लामिक अध्ययन और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन पूरा कर लिया। इस बीच मेरा जीवन सहज हो गया था। मैंने नौकरी छोड़कर स्टेशनरी निर्यात का बिजनेस शुरू कर दिया था। बिजनेस में मैंने अपनी जरूरत के मुताबिक अच्छा पैसा कमाया। इस तरह सैट होने के बाद मैंने इस्लाम कबूल करने और इसका ऐलान करने का निशचय किया। और फिर २५ दिसंबर १९५९ को मैंने इजिप्ट में अमेरिकन मिशान के मुखिया डॉ थॉमसन को टेलीग्राम के जरिए इस्लाम कबूल करने की जानकारी दी। मैंने डॉ जमाल को अपनी वास्तविक दास्तां बताई तो वे आशचर्यचकित हुए क्योंकि वे अब तक इससे अनजान थे। इस्लाम कबूल करने के ऐलान के साथ ही मेरे सामने नई तरह की परेशानियां आनी शाुरू हो गई। मिशानरी में मेरे साथ काम करने वाले मेरे पूर्व सात साथियों ने मुझ पर इस्लाम कबूल करने का दबाव बनाया। मैं अपने इरादे पर अंिडग था। उन्होने मुझे मेरी पत्नी से अलग करने की धमकी दी। मैंने साफ कह दिया- वह अपना फैसला लेने के लिए आजाद है। मुझे मारने की धमकी दी गई।जब उनकी बातों का मुझ पर असर नहीं हुआ तो उन्होने मेरे पास मेरे एक पुराने खास दोस्त और मेरे साथ काम कर चुके सहकर्मी को भेजा। वह मेरे पास आकर रोने लगा। मैंने उसके सामने कुरआन की यह आयत पढ़ी- जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें छलकने लगती हंै इसका कारण यह है कि उन्होने सत्य को पहचान लिया है वे कहते हैं -हमारे रब हम ईमान लाए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। और हम अल्लाह पर और जो सत्य हमारे पास पहुंचा है उस पर ईमान क्यों नहीं लाएं,जबकि हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमें अच्छे लोगों के साथ जन्नत में दाखिल करेगा। कुरआन :८३-८४ मैंने उससे कहा- कुरआन सुनने के बाद तुम्हे विनम्र होकर वर के सामने झुक जाना चाहिए और सच्चे धर्म को तुम्हे भी अपना लेना चाहिए। अपनी बातों का असर होता देख वह मुझे अकेला छोड़ चला गया। और फिर मैंने जनवरी १९६० में आधिकारिक रूप से इस्लाम कबूल करने का ऐलान कर कर दिया।

इस्लाम कबूल करने के ऐलान के करते ही मेरी पत्नी मुझे छोड़ गई और अपने साथ घर का सारा फर्नीचर ले गई। मेरे तीन बेटे और एक बेटी मेरे साथ रहे और उन्होने भी इस्लाम कबूल कर लिया। इस्लाम कबूल करने में सबसे ज्यादा उत्साहित मेरा बड़ा बेटा इसाक था जिसने अपना इस्लामिक नाम ओसामा रख लिया। ओसामा ने फिलोसोफी में डॉक्टरेट की और वह पेरिस की यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गया। घर छोड़ने के छह साल बाद मेरी पत्नी वापस लौट आई इस शार्त पर कि वह अपना धर्म नहीं छोड़ेगी। मैंने उसे अपना लिया क्योंकि इस्लाम में इसकी इजाजत थी। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हे दबाव डालकर मुस्लिम नहीं बनाना चाहता, बल्कि चाहता हूं कि इस्लाम को समझने के बाद तुम ही इस मामले मेंं फैसला लो। कुछ वक्त बाद वह भी इस्लाम के मूल्यों में भरोसा करने लगी लेकिन अपने घर वालों के डर से इस्लाम अपनाने का ऐलान नहीं कर पाई। लेकिन हमारा व्यवहार उसके साथ मुस्लिम औरत की तरह है। वह रमजान के महीने के रोजे रखती है। मेरे सभी बच्चे भी रोजे रखते हैं और नमाज पढते हैं। मेरी बेटी नाजवा Wामर्स की स्टूडेंट है,बेटा जोसेफ डॉक्टर और जमाल इंजिनियर है। १९६१ से अब तक मैं इस्लाम पर और ईसाई मिशानरियों की इस्लाम के खिलाफ मुहिम पर कई किताबें लिख चुका हूं।१९७३ में मैंने हज किया। मैं इस्लाम पर तकरीर करता हूं। मैंने कई यूनिवर्सिटी और समाजसेवी संस्थाओं में सेमिनार का आयोजन किया। मैं अपना पूरा वक्त इस्लाम के लिए खर्च कर रहा हूं। कुरआन और पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेहेवस्सलम की जीवनी का अध्ययन करने पर इस्लाम के प्रति मेरा यकीन पुख्ता बनता गया। इस्लाम से जुड़ी सारी गलतफहमियां दूर हो गईंं। इस्लाम में एक ईश्वर की अवधारणा से मैं बेहद प्रभावित हुआ और मुझे इस्लाम की यह सबसे बड़ी खूबी लगी। अल्लाह एक है। उसका कोई साझी नहीं है। इस्लाम की इस अवधारणा से मैं उस एक ईश्वर का बन्दा बन गया जिसका कोई हमसर नहीं। एक ईश्वर में भरोसा व्यक्ति को खुद्दार बनाता है और समस्त मानव जाति को हर तरह की दासता से मुक्ति देता है और यही सही मायनों में आजादी है। मैं इस्लाम में माफी देने के नियम और वर और बन्दे के बीच सीधे संबंध से बेहद प्रभावित हुआ। 
अल्लाह कहता है

कह दो - मेरे बन्दो जिन्होने अपने आप पर ज्यादती की है अल्लाह की दयालुता से निराशा हो। निसंदेह अल्लाह सारे ही गुनाहों को माफ कर देता है। निशचय ही वह बड़ा क्षमाशील,अत्यन्त दयावान है। ३९: ५३


source : http://hamarianjuman.blogspot.com
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