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Thursday 25th of April 2024
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क़ुरआने मजीद और माली इसलाहात

क़ुरआने मजीद और माली इसलाहात

इक़्तेसादी दुनिया में मालीयात की तन्ज़ीम के दो मरहले होते हैं। एक मरहला पैदावार का होता है और दूसरा सरवत की तक़सीम का और आम तौर से इक़्तेसादी निज़ाम तक़सीम के बारे में बहस करता है और पैदावार के मरहसे को इल्मुल इक़्तेसाद के हवाले कर देता है। लेकिन इस्लाम ने दोनों मराहिल पर इज़हारे नज़र किया है और एक मुकम्मल माली निज़ाम पेश किया है। इस मक़ाम पर उन तफ़सीलात के पेश करने का मौक़ा नही है, सिर्फ़ मालीयात के बारे में क़ुरआने मजीद के चंद नज़रियात की तरफ़ इशारा किया जा रहा है।
तहफ़्फ़ुज़े माल:

क़ुरआने मजीद ने माल के तहफ़्फ़ुज़ के तीन रास्ते मुक़र्रर किये हैं, ग़ैर मालिक माल को हाथ न लगाने पाये, साहिबे माल अपने माल को ज़ाया और बर्बाद न करने पाये और माल को इस क़दर महफ़ूज़ भी न किया जाये कि वह अवामी ज़िन्दगी से ज़्यादा क़ीमती हो जाये और समाज की तबाही और बर्बादी का सबब बन जाये कि इस तरह माल की बर्बादी का सबब बन जाता है और उसे माली तहफ़्फ़ुज़ का नाम नही दिया जा सकता है। किसी शय के तहफ़्फ़ुज़ के मायनी उसकी हैसियत और मानवीयत का तहफ़्फ़ुज़ है और माल की वाक़यी हैसियत और मानवीयत यह है कि वह समाज के हक़ में ख़ैर व बरकत बने औक जानों की हिफ़ाज़त का इन्तेज़ाम करे न यह कि ख़ुद रह जाये और सारे समाज को तबाही के घाट उतार दे।

क़ुरआने मजीद में तीनों रास्तों के अलग अलग उनवान हैं जिनके तहत इन अहकाम का तज़किरा किया गया है:

1- बिला इजाज़त तसर्रुफ़

“وَلاَتَأْكُلُواْ أَمْوَالَكُم بَيْنَكُم بِالْبَاطِلِ” “ख़बरदार अपने अमवाल को आपस में बातिल ज़रीये से न खाओ”(सूरह बक़रह आयत 188)

-وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُواْ أَيْدِيَهُمَا جَزَاء بِمَا كَسَبَا نَكَالاً مِّنَ اللّهِ وَاللّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ َ

“चोर मर्द और चोर औरत के हाथ काट दो कि यह उनके आमाल की सज़ा और अल्लाह की तरफ़ से अज़ाब है और अल्लाह साहिबे इज़्ज़त भी है और साहिबे हिकमत भी है।”(सूरह मायदा आयत 38)

-يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدْخُلُوا بُيُوتًا غَيْرَ بُيُوتِكُمْ

“ईमान वालों ख़बरदार अपने घरों के अलावा दूसरे घरों में दाख़िल न होना”(सूरह नूर 27)

- لَيْسَ الْبِرُّ بِأَنْ تَأْتُوْاْ الْبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَاَ

“नेकी यह नही है कि घरों में उनकी पुश्त की तरफ़ से दाख़िल हो बल्कि नेकी उसका हिस्सा है जो तक़वा इख़्तियार करे और घरों में दरवाज़ों की तरफ़ से दाख़िल हो। और तक़वा ए इलाही इख़्तियार करो शायद इस तरह फ़लाह और कामयाबी हासिल कर लो।”(सूरह बक़रह 189)

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ اتَّقُواْ اللّهَ وَذَرُواْ مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبَا إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ

“ईमान वालो, अल्लाह से डरो और जो सूद बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो अगर तुम साहिबे ईमान हो, और अगर ऐसा न करो तो अल्लाह और रसूल से जंग करने के लिये तैयार हो जाओ।”(सूरह बक़रह आयत 278)

الَّذِينَ يَأْكُلُونَ الرِّبَا لاَ يَقُومُونَ إِلاَّ كَمَا يَقُومُ الَّذِي يَتَخَبَّطُهُ الشَّيْطَانُ مِنَ الْمَسِّ َ

“जो लोग सूद खाते हैं वह इसी तरह क़याम करते हैं जिस तरह वह इंसान क़याम करता है जिसे शैतान मस करके ख़बतुल हवास बना दे।”(सूरह बक़रह आयत 275)

وَإِن كَانَ ذُو عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ إِلَى مَيْسَرَةٍ

“अगर मक़रूज़ तंगदस्त है तो उसे मोहलत दी जाये यहाँ तक कि इमकानात पैदा हो जाये और क़र्ज़ को अदा कर सके।”(सूरह बक़रह आयत 280)

وَيْلٌ لِّلْمُطَفِّفِينَ 1 الَّذِينَ إِذَا اكْتَالُواْ عَلَى النَّاسِ يَسْتَوْفُونَ 2 وَإِذَا كَالُوهُمْ أَو وَّزَنُوهُمْ يُخْسِرُونَ

“बैल(तबाही) है उन नाप तौल में बेईमानी करने वालों के लिये जो लोगों से अपना माल नाप तौल कर लेते है तो पूरा पूरा ले लेते हैं और उन्हे नाप तौल कर देते हैं तो कम कर देते हैं।”(सूरह मुतफ़्फ़ेफ़ीन आयत 1,2,3)

وَلاَ تَبْخَسُواْ النَّاسَ أَشْيَاءهُمْ وَلاَ تَعْثَوْاْ فِي الأَرْضِ مُفْسِدِينَ

“लोगों को चीज़े देने में कमी न करो और ख़बरदार रू ए ज़मीन में फ़साद न फैलाते फिरो।”(सूरह हूद आयत 85)

وَأَقِيمُوا الْوَزْنَ بِالْقِسْطِ وَلَا تُخْسِرُوا الْمِيزَانَ

“वज़न को इंसाफ़ के साथ पूरा पूरा करो और ख़बरदार तराज़ू में घाटा न दो।”

इन आयते करीमा से साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम दूसरे के माल को चोरी से हाथ लगाने में हाथों के बाक़ी रखने का भी क़ायल नही है बल्कि उसकी नज़रिया यह है कि ऐसे हाथों को कतअ हो जाना चाहिये ताकि हराम ख़ोरी का सिलसिला बंद हो जाये और दूसरे के माल को हाथ लगाने की जुरअत व हिम्मत ख़त्म हो जाये।

वह दूसरे के माल को ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से खाने का भी क़ायल नही है, और अकल बिल बातिल को यकसर हराम क़रार देता है।

उसकी नज़र में ग़ैर के मकान में बिला ईजाज़त दाख़िल होना या दरवाज़े को छोड़ कर किसी और रास्ते दाख़िल होना भी एक अख़लाक़ी जुर्म है।

वह सूद ख़्वारी को इन्तेहाई मज़मूम निगाहों से देखता है और सूद ख़्वार को शैतान का मारा हुआ दीवाना और ख़ब्तुल हवास क़रार देता है।

उसकी नज़र में नाप तौल में ख़्यानत एक शदीद जुर्म है और वह मुआशरे को इस तरह के तमाम ओयूब से पाक व पाकीज़ा रखना चाहता है।
2- इसराफ़

इस्लाम ने दूसरे के माल को नाज़ाइज़ तरीक़े से इस्तेमाल करने को हराम करने के बाद ख़ुद साहिबे माल को भी पाबंद बना दिया है कि अपने माल को भी ग़ैर आक़िलाना अंदाज़ से सर्फ़ न करो वर्ना उसका अंजाम भी बुरा होगा।

क़ुरआने मजीद ने इस सिलसिले में दो तरह की हिदायतें दी हैं। कभी इसराफ़ करने से मना किया है औक ऐलान किया है कि “إِنَّهُ لاَ يُحِبُّ الْمُسْرِفِينَ” (सूरह आराफ़ आयत 31) “ख़ुदा इसराफ़ करने वालों को दोस्त नही रखता है।”

और कभी तबज़ीर करने वालों को शैतान का भाई क़रार देता है।“إِنَّ الْمُبَذِّرِينَ كَانُواْ إِخْوَانَ الشَّيَاطِينِ” “तबज़ीर करने वाले शयातीन के भाई हैं।”(सूरह इसरा आयत 27)

और कभी हर नाज़ाइज़ क़िस्म के तसर्रुफ़ को तबाही और बर्बादी का सबब क़रार देता है।“وَإِذَا أَرَدْنَا أَن نُّهْلِكَ قَرْيَةً أَمَرْنَا مُتْرَفِيهَا فَفَسَقُواْ فِيهَا فَحَقَّ عَلَيْهَا الْقَوْلُ فَدَمَّرْنَاهَا تَدْمِيرًا”(सूरह इसरा आयत 16)

“जब हम किसी क़रये को उसकी बद आमालीयों की की बिना पर हलाक करना चाहते हैं तो उसके मालदारों पर अहकाम नाफ़िज़ कर हैं और वह अपनी आदत के मुताबिक़ नाफ़रमानी करते हैं और हमारी बात साबित हो जाती है तो हम उन्हे बिल्कुल तबाह व बर्बाद कर देते हैं।”

इन आयात से साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम अपने अमवाल में भी बेराह रवी को बर्दाश्त नही करता है और उसकी हर क़िस्म को नाजाइज़ और हराम क़रार देता है।

समाज मे बेराह रवी के दो अंदाज़ होते हैं। कभी यह हरकत कम्मीयत और मिक़दार के ऐतबार से होती है कि इसान की हैसियत सौ रूपये ख़र्च करने की है और वह बरतरी के जज़्बे के तहत पाँच सौ रूपचे ख़र्च कर देता है जिसे इसराफ़ और फ़ुज़ूल ख़र्ची कहा जाता है और जो अक़ल व शरअ दोनों की नज़र में मज़मूम और हराम है। और कभी यह हरकत कैफ़ियत के ऐतबार से होती है कि इंसान साल भर में चार ही जोड़े कपड़े बनाता है लेकिन उसकी हैसियत पचास रूपये गज़ की है और वह सौ रूपये गज़ का कपड़ा ख़रीदता है ताकि समाज में अपनी हैसियत की नुमाईश करे और लोगों के दरमीयान अपनी बरतरी का ऐलान कर सके जिसे तबज़ीर कहा जाता है। और जो शैतानी बिरादरी में दाख़िल होने का बेहतरीन ज़रीया है।
3- जमा आवरी

मालीयात के सिलसिले का तीसरा जुर्म ख़ुद माल को इस तरह महफ़ूज़ करना है कि न ख़ुद इस्तेमाल करे और न दूसरे के हवाले करे। क़ुरआने मजीद ने इसे भी बदतरीन जुर्म क़रार दिया है और इसकी रोक थाम के लिये मुस्बत और मन्फ़ी दोनो रास्ते इख़्तियाक किये हैं।

कभी मुस्बत तरीक़े से ख़र्च करने की दावत दी है:

“كَيْ لَا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الْأَغْنِيَاء مِنكُمْ” “माल को सर्फ़ करो ताकि सिर्फ़ दौलतमंदों के दरमीयान धूम फिर कर न रह जाये।” (सूरह हश्र आयत 7)

“وَيَسْأَلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَ قُلِ الْعَفْوَ” “पैग़म्बर यह आपसे सवाल करते हैं कि क्या ख़र्च करें?तो आप कह दीजीए कि जो तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा है सब ख़र्च कर दो।”(सूरह बक़रह आयत 219)

لَن تَنَالُواْ الْبِرَّ حَتَّى تُنفِقُواْ مِمَّا تُحِبُّونَ

“तुम लोग हरगिज़ नेकी तक नही पहुच सकते हो जब तक उसमें से ख़र्च न करो जिसे तुम दोस्त रखते हो।”(सूरह आले इमरान आयत 92)

وَفِي أَمْوَالِهِمْ حَقٌّ لِّلسَّائِلِ وَالْمَحْرُومِ

“साहिबाने ईमान की एक अलामत यह भी है कि उनके अमवाल में माँगने वाले और न माँगने वाले महरूम अफ़राद सबका एक मुअय्यन हिस्सा होता है।”(सूरह ज़ारियात आयत 19)

इन तालीमात के अलावा मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अमवाल पर ज़कात का वाजिब होना। और तमाम क़िस्म की आमदनीयों के साल तमाम होने पर ख़ुम्स का वाजिब होना इस बात की अलामत है कि इस्लाम की निगाह में माल की हिफ़ाज़त का मक़सद अपने घर में हिफ़ाज़त नही है बल्कि ख़ज़ाना ए क़ुदरते ईलाही में महफ़ूज़ कर देना है जहाँ किसी क़िस्म का कोई ख़तरा नही रह जाता है और माल बराबर बढ़ता रहता है। दस गुना से लाख गुना तक ईज़ाफ़ा मुअय्यन है और उसके बाद मज़ीद ईज़ाफ़ा रहमते परवरदिगार से वाबस्ता है।

दूसरी तरफ़ क़ुरआने मजीद ने मन्फ़ी लहजे में उन तमाम तरीक़ो पर पाबंदी आइद कर दी है जिनसे माल मुन्जमिद हो जाने का ख़तरा है। इरशाद होता है:

وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلاَ يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللّهِ فَبَشِّرْهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ 34 يَوْمَ يُحْمَى عَلَيْهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكْوَى بِهَا جِبَاهُهُمْ وَجُنوبُهُمْ وَظُهُورُهُمْ هَـذَا مَا كَنَزْتُمْ لأَنفُسِكُمْ فَذُوقُواْ مَا كُنتُمْ تَكْنِزُونَ

“जो लोग सोने चाँदी को ज़ख़ीरा करते हैं और राहे ख़ुदा में ख़र्च नही करते हैं, आप उन्हे दर्दनाक अज़ाब की बशारत दे दीजीए। जिस दिन उस सोने चाँदी को आतिशे जहन्नम में तपाया जायेगा और उससे उनकी पेशानीयाँ, पहलू और पुश्त को दाग़ा जायेगा कि यही तुमने अपने लिये ज़ख़ीरा किया है तो अब अपने ज़ख़ीरे के एवज़ में अज़ाब का मज़ा चखो।”(सूरब तैबा आयत 34)

وَأَنفِقُواْ فِي سَبِيلِ اللّهِ وَلاَ تُلْقُواْ بِأَيْدِيكُمْ إِلَى التَّهْلُكَةِ

“राहे ख़ुदा में ख़र्च करो और अपने को अपने हाथों हलाकत में मत डालो।”(सूरह बक़रह आयत 195)

इस फ़िक़रे में दोनो तरह की हिदायत पायी जाती हैं। यह मक़सद भी है कि राहे ख़ुदा में ख़र्च करो और बुख़्ल व कंजूसी के ज़रीये अपने को हलाकत में मत डालो। और यह भी मक़सद है कि इतना ज़्यादा ख़र्च न करो कि अपने को हलाकत में डाल दो। इस ऐहतेमाल की बिना पर ख़र्च का तअल्लुक़ राहे ख़ुदा के अलावा दीगर रास्तों से होगा इसलिये कि राहे ख़ुदा में ख़र्च करना इन्फ़ाक़ और ख़ैर है, और ख़ैर में इसराफ़ का कोई इमकान नही है कि जिस तरह से इसराफ़ में किसी ख़ैर का इमकान नही है।

वाज़ेह रहे कि सोने चाँदी के ख़ज़ाने बनाने की तरह दीहर ज़रूरीयाते ज़िन्दगी का ऐहतेकार भी इस्लाम में ज़ाइज़ नही है और उसने वाज़ेह लफ़्ज़ों में ऐलान कर दिया है कि ऐहतेकार करने वाला ख़ताकार होता है और उसके मिज़ाज में जल्लादीयत और बेरहमी पायी जाती है, वह माल की अहमीयत का अहसास रखता है और इंसानी ज़रूरीयात या ज़िन्दगी की किसी अहमीयत का क़ायल नही है।

ऐहतेक़ार के मायना है कि ग़ल्लात और अजनास की तरह की वह अशया जिन पर समाजी ज़िन्दगी का दारोमदार है उन्हे रोक कर रखा जाये और क़ीमत ज़्यादा होने पर फ़रोख़्त किया जाये जबकि समाजी ज़िन्दगी ख़तरे में हो और दूसरा कोई इस कमी का पूरा करने वाला न हो। वर्ना अगर दूसरे बेचने वाले शरीफ़ अफ़राद मौजूद हैं या किसी एक इंसान के फ़राख्त न करने से समाजी ज़िन्दगी को कोई ख़तरा लाहक़ नही होता है तो क़ीमत के ईज़ाफ़े के इमकान की बिना पर माल को रोक कर रखना मुतलक़ तौर पर हराम नही है। इस्लाम फ़ायदा कमाने या तिजारत के हुनर इस्तेमाल करने का मुख़ालिफ़ नही है। वह माल को इस क़दर अहमीयत देने का मुख़ालिफ़ है कि जान बेक़ीमत हो जाये और समाजी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जाये।

क़ुरआनी मालीयात का मुतालआ करने वाला जानता है कि माल क़ुरआने मजीद के नज़दीक ख़ैर, बरकत, मोहतरम और मोअज़्ज़ज़ भी है और यही माल नहूसत, शक़ावत और शैतानत का ज़रीया भी है। अब यह इंसान के इख़्तियार में है कि वह इस माल के ज़रीये किस मंज़िल पर फ़ाएज़ होना चाहता है और अपने को इंसानीयत या शैतानत की किस बिरादरी में शामिल करना चाहता है?।

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